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Pratidin Ek Kavita

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रोज
 
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।
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बेचैन बहारों में क्या-क्या है / क़तील बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है कुछ और भी साँ…
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दौड़ | रामदरश मिश्र वह आगे-आगे था मैं उसके पीछे-पीछे मेरे पीछे अनेक लोग थे हाँ, यह दौड़-प्रतिस्पर्धा थी लक्ष्य से कुछ ही दूर पहले एकाएक उसकी चाल धीमी पड़ गयी और रुक गया मैं आगे निकल गया जीत के गर्वीले सुख के उन्माद से मैं झूम उठा उसके हार-जन्य दुख की कल्पना से मेरा सुख और भी उन्मत्त हो उठा मूर्ख कहीं का मैं मन ही मन भुनभुनाया उन्माद की हँसी हँसता ह…
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जैसे जब से तारा देखा | अज्ञेय क्या दिया-लिया? जैसे जब तारा देखा सद्यःउदित —शुक्र, स्वाति, लुब्धक— कभी क्षण-भर यह बिसर गया मैं मिट्टी हूँ; जब से प्यार किया, जब भी उभरा यह बोध कि तुम प्रिय हो— सद्यःसाक्षात् हुआ— सहसा देने के अहंकार पाने की ईहा से होने के अपनेपन (एकाकीपन!) से उबर गया। जब-जब यों भूला, धुल कर मंज कर एकाकी से एक हुआ। जिया।…
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साल मुबारक! | आशीष पण्ड्या साल मुबारक! भगवा हो या लाल, मुबारक! साल मुबारक! आज नया कल हुआ पुराना, टिक टिक करता काल मुबारक! पैसे की भूखी दुनिया को, थाल में रोटी-दाल मुबारक! चिंताओं से लदी चाँद पर, बचे खुचे कुछ बाल मुबारक! यहाँ पड़े हैं जान के लाले, वो कहते लोकपाल मुबारक! काली करतूतों की गठरी, धवल रेशमी शाल मुबारक! ग़ैरत! इज्ज़त! शर्म? निरर्थक, अब तो म…
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जीवन बचा है अभी | शलभ श्रीराम सिंह जीवन बचा है अभी ज़मीन के भीतर नमी बरक़रार है बरकरार है पत्थर के भीतर आग हरापन जड़ों के अन्दर साँस ले रहा है! जीवन बचा है अभी रोशनी खाकर भी हरकत में हैं पुतलियाँ दिमाग सोच रहा है जीवन के बारे में ख़ून दिल तक पहुँचने की कोशिश में है! जीवन बचा है अभी सूख गए फूल के आसपास है ख़ुशबू आदमी को छोड़कर भागे नहीं हैं सपने भाष…
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ईश्वर के बच्चे | आलोक आज़ाद क्या आपने ईश्वर के बच्चों को देखा है? ये अक्सर सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में धरती से क्षितिज की और दौड़ लगा रहे होते हैं ये अपनी माँ की कोख से ही मज़दूर है। और अपने पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत है। ये किसी चमत्कार की तरह युद्ध में गिराए जा रहे खाने के थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं। और किसी चमत्कार की तरह ही …
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सुख का दुख / भवानीप्रसाद मिश्र ज़िन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है, इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है, क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ, बड़े सुख आ जाएँ घर में तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूँ। यहाँ एक बात इससे भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि, बड़े सुखों को देखकर मेरे बच्चे सहम जाते हैं, मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें सिखा दूँ कि सुख कोई डरने की चीज़ नह…
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वह मुझी में है भय | नंदकिशोर आचार्य एक अनन्त शून्य ही हो यदि तुम तो मुझे भय क्यों है ? कुछ है ही नहीं जब जिस पर जा गिरूँ चूर-चूर हो छितर जाऊँ उड़ जायें मेरे परखच्चे तब क्यों डरूँ? नहीं, तुम नहीं वह मुझी में है भय मुझ को जो मार देता है। और इसलिए वह रूप भी जो तुम्हें आकार देता है।द्वारा Nayi Dhara Radio
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एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता | शमशेर बहादुर सिंह एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता पूरब से पच्छिम को एक क़दम से नापता बढ़ रहा है कितनी ऊँची घासें चाँद-तारों को छूने-छूने को हैं जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ फिर क्यों दो बादलों के तार उसे महज़ उलझा रहे हैं?…
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माँ, मोज़े, और ख़्वाब | प्रशांत पुरोहित माँ के हाथों से बुने मोज़े मैं अपने पाँवों में पहनता हूँ, सिर पे रखता हूँ। मेरे बचपन से कुछ बुनती आ रही है, सब उसी के ख़्वाब हैं जो दिल में रखता हूँ। पाँव बढ़ते गए, मोज़े घिसते-फटते गए, हर माहे-पूस में एक और ले रखता हूँ। मैं माँगता जाता हूँ, वो फिर दे देती है - और एक नया ख़्वाब नए रंगो-डिज़ाइन में मेरे सब जाड…
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दुख | मदन कश्यप दुख इतना था उसके जीवन में कि प्यार में भी दुख ही था उसकी आँखों में झाँका दुख तालाब के जल की तरह ठहरा हुआ था उसे बाँहों में कसा पीठ पर दुख दागने के निशान की तरह दिखा उसे चूमना चाहा दुख होंठों पर पपड़ियों की तरह जमा था उसे निर्वस्त्र करना चाहा उसने दुख पहन रखा था जिसे उतारना संभव नहीं था।…
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बचपन की वह नदी | नासिरा शर्मा बचपन की वह नदी जो बहती थी मेरी नसों में जाने कितनी बार उतारा है मैंने उसे अक्षरों में पढ़ने वाले करते हैं शिकायत यह नदी कहाँ है जिसका ज़िक्र है अकसर आपकी कहानियों में? कैसे कहूँ कि यादों का भी एक सच होता है जो वर्तमान में कहीं नज़र नहीं आता वर्तमान का अतीत हो जाना भी समय के बहने जैसा है जैसे वह नदी बहती थी कभी पिघली चा…
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डेली पैसेंजर | अरुण कमल मैंने उसे कुछ भी तो नहीं दिया इसे प्यार भी तो नहीं कहेंगे एक धुँधले-से स्टेशन पर वह हमारे डब्बे में चढ़ी और भीड़ में खड़ी रही कुछ देर सीकड़ पकड़े पाँव बदलती फिर मेरी ओर देखा और मैंने पाँव सीट से नीचे कर लिए और नीचे उतार दिया झोला उसने कुछ कहा तो नहीं था वह आ गई और मेरी बग़ल में बैठ गई धीरे से पीठ तख़्ते से टिकाई और लंबी साँस …
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देहरी | गीतू गर्ग बुढ़ा जाती है मायके की ढ्योडियॉं अशक्त होती मॉं के साथ.. अकेलेपन को सीने की कसमसाहट में भरने की आतुरता निढाल आशंकाओं में झूलती उतराती.. थाली में परसी एक तरकारी और दाल देती है गवाही दीवारों पर चस्पाँ कैफ़ियत की अब इनकी उम्र को लच्छेदार भोजन नहीं पचता मन को चलाना इस उमर में नहीं सजता होंठ भीतर ही भीतर फड़फड़ाते हैं बिटिया को खीर पसं…
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पूरा दिन | गुलज़ार मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है, झपट लेता है, अंटी से कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की आहट भी नहीं होती, खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैं गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते हैं "तेरी गुज़री हुई पुश्तों का कर्जा है, तुझे किश्तें चुकानी है " ज़बरदस्ती कोई गिरवी रख लेता है, …
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ओंठ | अशोक वाजपेयी तराशने में लगा होगा एक जन्मांतर पर अभी-अभी उगी पत्तियों की तरह ताज़े हैं। उन पर आयु की झीनी ओस हमेशा नम है उसी रास्ते आती है हँसी मुस्कुराहट वहीं खिलते हैं शब्द बिना कविता बने वहीं पर छाप खिलती है दूसरे ओठों की वह गुनगुनाती है समय की अँधेरी कंदरा में बैठा कालदेवता सुनता है वह हंसती है। बर्फ़ में ढँकी वनराशि सुगबुगाती है वह चूमती ह…
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सौंदर्य का आश्चर्यलोक | सविता सिंह बचपन में घंटों माँ को निहारा करती थी मुझे वह बेहद सुंदर लगती थी उसके हाथ कोमल गुलाबी फूलों की तरह थे पाँव ख़रगोश के पाँव जैसे उसकी आँखें सदा सपनों से सराबोर दिखतीं उसके लंबे काले बाल हर पल उलझाए रखते मुझे याद है सबसे ज़्यादा मैं उसके बालों से ही खेला करती थी उसे गूँथती फिर खोलती थी जब माँ नहा-धोकर तैयार होती साड़ी …
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संकट | मदन कश्यप अक्सर ताला उसकी ज़ुबान पर लगा होता है जो बहुत ज़्यादा सोचता है जो बहुत बोलता है उसके दिमाग पर ताला लगा होता है संकट तब बढ़ जाता है जब चुप्पा आदमी इतना चुप हो जाए कि सोचना छोड़ दे और बोलने वाला ऐसा शोर मचाये कि उसकी भाषा से विचार ही नहीं, शब्द भी गुम हो जाएँ!द्वारा Nayi Dhara Radio
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हम नदी के साथ-साथ | अज्ञेय हम नदी के साथ-साथ सागर की ओर गए पर नदी सागर में मिली हम छोर रहे: नारियल के खड़े तने हमें लहरों से अलगाते रहे बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल हमारा मन उलझाते रहे नदी की नाव न जाने कब खुल गई नदी ही सागर में घुल गई हमारी ही गाँठ न खुली दीठ न धुली हम फिर, लौट कर फिर गली-गली अपनी पुरानी अस्ति की टोह में …
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सूई | रामदरश मिश्रा अभी-अभी लौटी हूँ अपनी जगह पर परिवार के एक पाँव में चुभा हुआ काँटा निकालकर फिर खोंस दी गयी हूँ धागे की रील में जहाँ पड़ी रहूंगी चुपचाप परिवार की हलचलों में अस्तित्वहीन-सी अदृश्य एकाएक याद आएगी नव गृहिणी को मेरी जब ऑफिस जाता उसका पति झल्लाएगा- अरे, कमीज़ का बटन टूटा हुआ है" गृहिणी हँसती हुई आएगी रसोईघर से और मुझे लेकर बटन टाँकने ल…
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दरार में उगा पीपल | अरविन्द अवस्थी ज़मीन से बीस फीट ऊपर किले की दीवार की दरार में उगा पीपल महत्वकांक्षा की डोर पकड़ लगा है कोशिश में ऊपर और ऊपर जाने की जीने के लिए खींच ले रहा है हवा से नमी सूरज से रोशनी अपने हिस्से की पत्तियाँ लहराकर दे रहा है सबूत अपने होने काद्वारा Nayi Dhara Radio
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क्या करूँ कोरा ही छोड़ जाऊँ काग़ज़? | अनूप सेठी क से लिखता हूँ कव्वा कर्कश क से कपोत छूट जाता है पंख फड़फड़ाता हुआ लिखना चाहता हूँ कला कल बनकर उत्पादन करने लगती है लिखता हूँ कर्मठ पढ़ा जाता है कायर डर जाता हूँ लिखूँगा क़ायदा अवतार लेगा उसमें से क़ातिल कैसा है यह काल कैसी काल की रचना-विरचना और कैसा मेरा काल का बोध बटी हुई रस्सी की तरह उलझते, छिटकते, टूटत…
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इतना मत दूर रहो गन्ध कहीं खो जाए | गिरिजाकुमार माथुर इतना मत दूर रहो गन्ध कहीं खो जाए आने दो आँच रोशनी न मन्द हो जाए देखा तुमको मैंने कितने जन्मों के बाद चम्पे की बदली सी धूप-छाँह आसपास घूम-सी गई दुनिया यह भी न रहा याद बह गया है वक़्त लिए मेरे सारे पलाश ले लो ये शब्द गीत भी कहीं न सो जाए आने दो आँच रोशनी न मन्द हो जाए उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहर…
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मिट मिट कर मैं सीख रहा हूँ | केदारनाथ अग्रवाल दूर कटा कवि मैं जनता का, कच-कच करता कचर रहा हूँ अपनी माटी; मिट-मिट कर मैं सीख रहा हूँ प्रतिपल जीने की परिपाटी कानूनी करतब से मारा जितना जीता उतना हारा न्याय-नेह सब समय खा गया भीतर बाहर धुआँ छा गया धन भी पैदा नहीं कर सका पेट-खलीसा नहीं भर सका लूट खसोट जहाँ होती है मेरी ताव वहाँ खोटी है मिली कचहरी इज़्ज़त थ…
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इसीलिए तो तुम पहाड़ हो | राजेश जोशी शिवालिक की पहाड़ियों पर चढ़ते हुए हाँफ जाता हूँ साँस के सन्तुलित होने तक पौड़ियों पर कई-कई बार रुकता हूँ आने को तो मैं भी आया हूँ यहाँ एक पहाड़ी गाँव से विंध्याचल की पहाड़ियों से घिरा है जो चारों ओर से मेरा बचपन भी गुज़रा है पहाड़ियों को धाँगते अवान्तर दिशाओं की पसलियों को टटोलते और पहाड़ी के छोर से उगती यज्ञ-अश्…
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हमारे शहर की स्त्रियाँ | अनूप सेठी एक साथ कई स्त्रियाँ बस में चढ़ती हैं एक हाथ से संतुलन बनाए एक हाथ में रुपए का सिक्का थामे बिना धक्का खाए काम पर पहुँचना है उन्हें दिन भर जुटे रहना है उन्हें टाइप मशीन पर, फ़ाइलों में साढ़े तीन पर रंजना सावंत ज़रा विचलित होंगी दफ़्तर से तीस मील दूर सात साल का अशोक सावंत स्कूल से लौट रहा है गर्मी से लाल हुआ पड़ोसिन से चाब…
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अंधेरे का स्वप्न | प्रियंका मैं उस ओर जाना चाहती हूँ जिधर हो नीम अँधेरा ! अंधेरे में बैठा जा सकता है थोड़ी देर सुकून से और बातें की जा सकती हैं ख़ुद से थोड़ी देर ही सही जिया जा सकता है स्वयं को ! अंधेरे में लिखी जा सकती है कविता हरे भरे पेड़ की फूलों से भरे बाग़ीचे की ओर उड़ती हुई तितलियों की अंधेरे में देखा जा सकता है सपना तुम्हारे साथ होने का तुम…
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इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े | कैफ़ी आज़मी इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह जी ख़ुश तो हो गया मगर आ…
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इतिहास | नरेश सक्सेना बरत पर फेंक दी गई चीज़ें, ख़ाली डिब्बे, शीशियाँ और रैपर ज़्यादातर तो बीन ले जाते हैं बच्चे, बाकी बची, शायद कुछ देर रहती हो शोकमग्न लेकिन देखते-देखते आपस में घुलने मिलने लगती हैं। मनाती हुई मुक्ति का समारोह। बारिश और ओस और धूप और धूल में मगन उड़ने लगती हैं उनकी इबारतें मिटने लगते हैं मूल्य और निर्माण की तिथियाँ छपी हुई चेतावनियाँ…
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जो युवा था | श्रीकांत वर्मा लौटकर सब आएँगे सिर्फ़ वह नहीं जो युवा था— युवावस्था लौटकर नहीं आती। अगर आया भी तो वह नहीं होगा। पके बाल, झुर्रियाँ, ज़रा, थकान वह बूढ़ा हो चुका होगा। रास्ते में आदमी का बूढ़ा हो जाना स्वाभाविक है— रास्ता सुगम हो या दुर्गम कोई क्यों चाहेगा बूढ़ा कहलाना? कोई क्यों अपने पके बाल गिनेगा? कोई क्यों चेहरे की सलें देख चाहेगा चौं…
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यदि प्रेम है मुझसे | अजय जुगरान यदि प्रेम है मुझसे तो मेरी घृणा का विरोध करना फिर वो चाहे किसी भी व्यक्ति किसी नस्ल से हो, यदि प्रेम है मुझसे तो मेरे क्रोध का विरोध करना फिर वो चाहे मेरे स्वयं या किसी और के प्रति हो, यदि प्रेम है मुझसे तो मेरी हिंसा का विरोध करना फिर वो चाहे किसी पशु किसी पेड़ के विरुद्ध हो, यदि प्रेम है मुझसे तो मेरी उपेक्षा का वि…
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वह माँ है | दामोदर खड़से दुःख जोड़ता है माँ के अहसासों में... माँ की अँगुलियों में होती है दवाइयों की फैक्ट्री! माँ की आँखों में होती हैं अग्निशामक दल की दमकलें माँ के सान्निध्य में होती है झील हर प्यास के लिए। स्वर्ग की कल्पना है माँ, माँ स्वर्ग होती है... समय की बेवफाई दुनिया के खिंचाव आकाश की ढलान सपनों के खौफ यात्राओं की भूख और सूरज के होते हुए …
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एक पल ही सही | नंदकिशोर आचार्य कभी निकाल बाहर करूँगा मैं समय को हमारे बीच से अरे, कभी तो जीने दो थोड़ा हम को भी अपने में ठेलता ही रहता है जब देखो जाने कहाँ फिर चाहे शिकायत कर दे वह उस ईश्वर को देखता जो आँखों से उसकी उसी के कानों से सुनता दे दे वह भी सज़ा जो चाहे एक पल ही सही जी तो लेंगे हम थोड़ा एक-दूसरे में समय के- और उस पर निर्भर ईश्वर के- बिना दे…
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दिनचर्या | श्रीकांत वर्मा एक अदृश्य टाइपराइटर पर साफ़, सुथरे काग़ज़-सा चढ़ता हुआ दिन, तेज़ी से छपते मकान, घर, मनुष्य और पूँछ हिला गली से बाहर आता कोई कुत्ता। एक टाइपराइटर पृथ्वी पर रोज़-रोज़ छापता है दिल्ली, बंबई, कलकत्ता। कहीं पर एक पेड़ अकस्मात छप करता है सारा दिन स्याही में न घुलने का तप। कहीं पर एक स्त्री अकस्मात उभर करती है प्रार्थना हे ईश्वर!…
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कौरव कौन, कौन पांडव | अटल बिहारी वाजपेयी कौरव कौन कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है। दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है। धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है। हर पंचायत में पांचाली अपमानित है। बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है, कोई राजा बने, रंक को तो रोना है।द्वारा Nayi Dhara Radio
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बचपन | विनय कुमार सिंह चाय के कप के दाग दिखाई दे रहे थे और फिर गुस्से से दी गई गाली के अक्स उस छोटे बच्चे के चेहरे पर देर तक दिखाई देते रहे जो अपने कमज़ोर हाथों से निर्विकार भाव से उन्हें चुपचाप धुल रहा था ।द्वारा Nayi Dhara Radio
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नदी | केदारनाथ सिंह अगर धीरे चलो वह तुम्हें छू लेगी दौड़ो तो छूट जाएगी नदी अगर ले लो साथ तो बीहड़ रास्तों में भी वह चलती चली जाएगी तुम्हारी उँगली पकड़कर अगर छोड़ दो तो वहीं अँधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर वह चुपके से रच लेगी एक समूची दुनिया एक छोटे-से घोंघे में सच्चाई यह है कि तुम कहीं भी रहो तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी प्यार करती …
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मेरे भीतर की कोयल | सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मेरे भीतर कहीं एक कोयल पागल हो गई है। सुबह, दुपहर, शाम, रात बस कूदती ही रहती है हर क्षण किन्हीं पत्तियों में छिपी थकती नहीं। मैं क्या करूँ? उसकी यह कुहू-कुहू सुनते-सुनते मैं घबरा गया हूँ। कहाँ से लाऊँ एक घनी फलों से लदी अमराई? कुछ बूढ़े पेड़ पत्तियाँ सँभाले खड़े हैं यही क्या कम है! मैं जानता हूँ वह अकेली है…
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मेरी देह में पाँव सही-सलामत हैं | शहंशाह आलम यह उदासी का बीमारी का मारकाट का समय है तब भी इस उदासी को इस बीमारी को हराता हूँ मैं देखता हूँ इतनी मारकाट के बाद भी मेरी देह में मेरे पाँव सही-सलामत हैं मैं लौट आ सकता हूँ घाट किनारे से गंगा में बह रहीं लाशों का मातम करके मेरे दोनों हाथ साबुत हैं अब भी छू आ सकता हूँ उसके गाल को दे सकता हूँ बूढ़े आदमी का …
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घूस माहात्म्य | काका हाथरसी कभी घूस खाई नहीं, किया न भ्रष्टाचार ऐसे भोंदू जीव को बार-बार धिक्कार बार-बार धिक्कार, व्यर्थ है वह व्यापारी माल तोलते समय न जिसने डंडी मारी कहँ 'काका', क्या नाम पायेगा ऐसा बंदा जिसने किसी संस्था का, न पचाया चंदाद्वारा Nayi Dhara Radio
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दाँत | नीलेश रघुवंशी गिरने वाले हैं सारे दूधिया दाँत एक-एक कर टूटकर ये दाँत जायेंगे कहाँ ? छत पर जाकर फेंकूँ या गड़ा दूँ ज़मीन में छत से फैंकूँगा चुरायेगा आसमान बनायेगा तारे बनकर तारे चिढ़ायेंगे दूर से डालूँ चूहे के बिल में आयेंगे लौटकर सुंदर और चमकीले चिढ़ायेंगे बच्चे 'चूहे से दाँत’ कहकर खपरैल पर गये तो आयेंगे कवेल की तरह या उड़ाकर ले जायेगी चिड़ि…
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गुम है ख़ुद | नंदकिशोर आचार्य ऐसी भी होती होगी खोज न कोई खोजी है जिसमें न कोई लक्ष्य तलाश ख़ुद की तलाश में अनवरत है गुम और मैं -जिसे खोजी कहते हैं सब- गुम हूँ उस खोज में जो कहीं खो कर मुझे गुम है ख़ुद।द्वारा Nayi Dhara Radio
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अपनी महफ़िल | कन्हैया लाल नंदन अपनी महफ़िल से ऐसे न टालो मुझे मैं तुम्हारा हूँ, तुम तो सँभालो मुझे ज़िंदगी! सब तुम्हारे भरम जी लिए हो सके तो भरम से निकालो मुझे मोतियों के सिवा कुछ नहीं पाओगे जितना जी चाहे उतना खँगालो मुझे मैं तो एहसास की एक कंदील हूँ जब भी चाहो बुझा लो, जला लो मुझे जिस्म तो ख़्वाब है, कल को मिट जाएगा रूह कहने लगी है, बचा लो मुझे फू…
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बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं / दुष्यंत कुमार बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं, और नदियों के किनारे घर बने हैं । चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं । इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं, जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं। आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन, इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं । जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी,…
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सुनो बिटिया... | सुमन केशरी सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन तुम देखना खिलखिलाती ताली बजाती उस उजास को जिसमें चिड़िया के पर सतरंगी हो जाएँ ठीक कहानियों की दुनिया की तरह तुम सुनती रहना कहानी देखना चिड़िया का उड़ना आकाश में हाथों को हवा में फैलाना सीखना और पंजों को उचकाना इसी तरह तुम देखा करना इक चिड़िया का बनना सुनो बिटिया मैं उड़त…
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प्रेम में किया गया अपराध | रूपम मिश्र प्रेम में किया गया अपराध भी अपराध ही होता है दोस्त पर किसी विधि की किताब में उसका दंड निर्धारण नहीं हुआ तुम सुन्दर हो! ये वाक्य स्त्री के साथ हुआ पहला छल था और मैं तुमसे प्रेम करता हूँ आखिरी अपराध उसके बाद किसी और अपराध की जरूरत नहीं पड़ी कभी गैरजरूरी लगने लगे प्रेम या खुद को जाया करने की कीमत मॉगने लगे आत्मा त…
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क़दम मिला कर चलना होगा / अटल बिहारी वाजपेयी बाधाएँ आती हैं आएँ घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं …
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केवल मैं नहीं हूँ | रामदरश मिश्र तुम्हारे लिए लाता रहा रंग-बिरंगे उपहार लैंडस्केप रेडियो टी.वी. वीडियो-गेम्स फ्रीज तरह-तरह के फर्नीचर और न जाने कितने-कितने उपकरण साज-सज्जा के जब देखा कि मेरा कमरा एकदम भर गया है इनसे तो मैं कितना ख़ुश हुआ था ओ मेरे सुख! अब सोचता हूँ- सभी कुछ तो है इस कमरे में केवल मैं नहीं हूँ।…
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चम्बा की धूप | कुमार विकल ठहरो भाई, धूप अभी आयेगी इतने आतुर क्यों हो आख़िर यह चम्बा की धूप है एक पहाड़ी गाय आराम से आयेगी यहीं कहीं चौग़ान में घास चरेगी गद्दी महिलाओं के संग सुस्तायेगी किलकारी भरते बच्चों के संग खेलेगी रावी के पानी में तिर जायेगी और खेल कूद के बाद यह सूरज की भूखी बिटिया आटे के पेड़े लेने को हर घर का चूल्हा -चौखट चूमेगी और अचानक थकक…
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भीगना | प्रशांत पुरोहित जब सड़क इतनी भीगी है तो मिट्टी कितनी गीली होगी, जब बाप की आँखें नम हैं, तो ममता कितनी सीली होगी। जेब-जेब ढूँढ़ रहा हूँ माचिस की ख़ाली डिब्बी लेकर, किसी के पास तो एक अदद बिल्कुल सूखी तीली होगी। कोई चाहे ऊपर से बाँटे या फिर नीचे से शुरू करे, बीच वाला फ़क़त हूँ मैं, जेब मेरी ही ढीली होगी। ना रहने को ना कहने को, मैं कभी सड़क पर …
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त्वरित संदर्भ मार्गदर्शिका

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