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सर्वश्रेष्ठ Environment पॉडकास्ट हम पा सकते हैं
सर्वश्रेष्ठ Environment पॉडकास्ट हम पा सकते हैं
With rising sea levels, changing climate and worsening pollution around the world, discussions concerning the environment have greatly intensified these recent years. And in order to spread environmental awareness to more people, scientists, environmentalists and nature lovers are making efforts to amplify their voices through podcasts. Podcasts are shows you can easily access on the web. They can be your new source of entertainment and information. With your computer or phone, you can conveniently stream podcasts when you're connected to wi-fi. You can also download podcasts for offline listening. If you want to hear stories, news and conversations about the environment, there's a lot of podcasts you can tune in to. Topics may range from ecology, nature appreciation, greentech and sustainability, as well as pressing issues like climate change, air and water pollution, and global warming. Here are the best environment podcasts today, which you may start listening to. Stay informed and make Mother Nature proud!
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show episodes
 
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Sanjit Mahapatra

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This channel is for a “Sanatana-Hindu-Vedic-Arya”. This is providing education and awareness; not entertainment. This talks about views from tradition and lineage. It will cover different Acharayas talks on Spirituality, Scriptures, Nationalism, Philosophy, and Rituals. These collections are not recorded in professional studios using high-end equipment, it is from traditional teachings environment. We are having the objective to spread the right things to the right people for the Sanatana Hi ...
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show series
 
मां है रेशम के कारखाने में | अली सरदार जाफ़री मां है रेशम के कारखाने में बाप मसरूफ सूती मिल में है कोख से मां की जब से निकला है बच्चा खोली के काले दिल में है जब यहाँ से निकल के जाएगा कारखानों के काम आयेगा अपने मजबूर पेट की खातिर भूक सरमाये की बढ़ाएगा हाथ सोने के फूल उगलेंगे जिस्म चांदी का धन लुटाएगा खिड़कियाँ होंगी बैंक की रौशन खून इसका दिए जलायेगा…
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पीछे से | अरुण कमल कितना साफ़ आकाश है पानी से पोंछा हुआ दूर ऊपर उठा उठता जाता नील बादलों के तबक कहीं-कहीं और इतने पंछी उठ रहे झुक रहे हवा बस इतनी कि भरी है सब जगह और एक चिड़िया वहाँ अकेली छोटी ठहरी हुई ज़िंदगी की छींट कितना सुन्दर है संसार दिन के दो बजे मनोहर शान्त और यह सब मैं देख रहा हूँ गुलेल के पीछे से।…
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चुनाव - अनामिका अपनी चपलता मुद्राओं में भी नर्तक सम तो नहीं भूलता पहीया नहीं भूलता अपना धूरा तू काहे भूल गई अनामिका तू कौन है याद रख शास्त्रों ने कहा तू-तू मैं-मैं करती दुनिया ने उंगली उठाई आखिर तू है कौन किस खेत की मूली मैं तो घबरा ही गई घबराकर सोचा इस विषम जीवन में मेरा सम कौन भला नाम तक कि कोई चौहत दी तो मुझको मिली नहीं यों ही पुकारा कि कर किये …
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कार्निस पर -कुँवर नारायण कार्निस पर एक नटखट किरण बच्चे-सी खड़ी जंगला पकड़ कर, किलकती है “मुझे देखो!” साँस रोके बांह फैलाए खड़ा गुलमुहर... कब वह कूद कर आ जाए उसकी गोद में!द्वारा Nayi Dhara Radio
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माँ का आशीर्वाद | अजेय जुगरान दोनों छोर पर ऊपर - नीची ढलान और घुमाव लिए बीच में कुछ सीधी सपाट सड़क और उस पर चलती मेरी माँ देने को लिए अनेकों आशीर्वाद। हर परिचित - अपरिचित बच्चे के नमस्ते - प्रणाम पर चाहे वो कितना ही सांकेतिक पास या दूर से हो “खुश रहो। जीते रहो।” स्थिर होकर सही दिशा में बोलती मानो निश्चित करना चाहती हो कि नज़र मिला आँखों से दिल में …
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कविता | कुँवर नारायण कविता वक्तव्य नहीं गवाह है कभी हमारे सामने कभी हमसे पहले कभी हमारे बाद कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता भाषा में उसका बयान जिसका पूरा मतलब है सचाई जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान उसे कोई हड़बड़ी नहीं कि वह इश्तहारों की तरह चिपके जुलूसों की तरह निकले नारों की तरह लगे और चुनावों की तरह जीते वह आदमी की भाषा में कहीं किसी तरह ज़िंदा र…
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छोटी-छोटी इच्छाएँ | बद्री नारायण मैं रात-दिन स्मरण करता हूँ अपनी उन छोटी इच्छाओं का जो पूरी हो गईं धीरे-धीरे जिन छोटी-छोटी इच्छाओं के चक्कर में अपनी बड़ी इच्छाओं से किनारा किया धिक्कार है मुझे कि मेरी धरी की धरी रह गई पहाड़ तोड़ने की इच्छा! काग़ज़ की नाव बनाकर मान लिया कि पूरी कर ली बड़ी-बड़ी लहरों से भरे समुद्र लांघने की इच्छा कुछ कविता लिखकर मैंन…
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पुस्तकें | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी नहीं, इस कमरे में नहीं उधर उस सीढ़ी के नीचे उस गैरेज के कोने में ले जाओ पुस्तकें वहाँ नहीं, जहाँ अँट सकती फ्रिज जहाँ नहीं लग सकता आदमकद शीशा बोरी में बाँधकर चट्टी से ढककर कुछ तख्ते के नीचे कुछ फूटे गमलों के ऊपर रख दो पुस्तकें ले जाओ इन्हें तक्षशिला-विक्रमशिला या चाहे जहाँ हमें उत्तराधिकार में नहीं चाहिए पुस्तकें को…
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घर रहेंगे - कुँवर नारायण घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे : समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे : अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे। मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके, हम जगेंगे यह विविधता, स्वप्न, खो के, और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके। प्रकृति औ' पाखंड के ये घने लिपटे बँटे, ऐंठे…
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मातृभाषा की मौत - जसिंता केरकेट्टा माँ के मुँह में ही मातृभाषा को क़ैद कर दिया गया और बच्चे उसकी रिहाई की माँग करते-करते बड़े हो गए। मातृभाषा ख़ुद नहीं मरी थी उसे मारा गया था पर, माँ यह कभी न जान सकी। रोटियों के सपने दिखाने वाली संभावनाओं के आगे अपने बच्चों के लिए उसने भींच लिए थे अपने दाँत और उन निवालों के सपनों के नीचे दब गई थी मातृभाषा। माँ को लगत…
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कल्पना - हेमंत देवलेकर उसने काग़ज़ पर एक चौकुट्टा सा गोला बनाया और मन में कहा ‘चिड़िया’। फिर उसने उस गोले में कहीं एक बिंदी मांड दी और मन में कहा ‘आसमान’। सच, चिड़िया की आँखों में आसमान बिंदु भर ही तो होगाद्वारा Nayi Dhara Radio
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हम अपना बीतना देखते हैं - यश मालवीय कल पर उड़ती नज़र फेंकते हैं हम अपना बीतना देखते हैं अपने से ही अनबन मगर तक़ाज़े हैं सपने खुले-खुले, जकड़े दरवाज़े हैं चलते-चलते बीच रास्ते में अपना ही रास्ता छेंकते हैं सुबहों के कुहरे को झीना करने की तारीख़ों को भीना-भीना करने की जीते जाने की उम्मीदों की, सँवलाई-सी धूप सेंकते हैं गलियों-सड़कों की धुँधली पहचान लिए अब तक …
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ऐसी भाषा | भगवत रावत | आरती जैन सारी उम्र बच्चों को पढ़ाई भाषा और विदा करते समय उनके पास में नहीं था एक ऐसा शब्द जिसे देकर कह सकता कि लो इसे सँभाल कर रखना यह संकट के समय काम आएगा या कि वह तुम्हें शर्मिंदगी से बचाएगा या कि वह तुम्हें गिरने से रोकेगा या कि ज़रूरत पड़ने पर यह तुम्हें टोकेगा या कि तुम इसके सहारे किसी भी नीचता का सामना कर सकोगे या इतना …
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लौटा मैं इस बड़े शहर में | मंगलेश डबराल इस बड़े शहर में रहता मैं एक आदमी अदना-सा था उस छोटे क़स्बे में गया तो पाया मेरा क़द बहुत बड़ा था सभी देखते नज़र उठाकर मुझको किसी बड़ी-सी आशा में मैं भी पता नहीं क्या बोला उनसे भीषण भरकम भाषा में वाह वाह कर सुनते थे मेरी कविता कहते थोड़ी और पीजिए बड़े शहर में जब हम आएँ कृपया थोड़ा समय दीजिए मार्ग दिखाते रहें क…
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उषा | शमशेर बहादुर सिंह | आरती जैन प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका [अभी गीला पड़ा है] बहुत काली सिल ज़रा-से लाल केसर से कि जैसे धुल गई हो स्लेट पर या लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने नील जल में या किसी की गौर झिलमिल देह जैसे हिल रही हो। और... जादू टूटता है इस उषा का अब सूर्योदय हो रहा है।…
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पत्तियाँ यह चीड़ की | नरेश सक्सेना सींक जैसी सरल और साधारण पत्तियाँ यदि न होतीं चीड़ की तो चीड़ कभी इतने सुंदर नहीं होते नीम या पीपल जैसी आकर्षक होतीं यदि पत्तियाँ चीड़ की तो चीड़ आकाश में तने हुए भालों से उर्जस्वित और तपस्वियों से स्थितिप्रज्ञ न होते सूखी और झड़ी हुई पत्तियाँ चीड़ की शीशम या महुए की पत्तियों सी पैरों तले दबने पर चुर्र-मुर्र नहीं हो…
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कहीं कभी | भुवनेश्वर कहीं कभी सितारे अपने आपकी आवाज पा लेते हैं और आसपास उन्हें गुजरते छू लेते हैं… कहीं कभी रात घुल जाती है और मेरे जिगर के लाल-लाल गहरे रंग को छू लेते हैं, हालाँकि यह सब फालतू लगता है यह भागदौड़ और यह सब सब कुछ रूखा-सूखा है लेकिन एक बच्चे की किलकारी की तरह यह सब मधुर है लेकिन कहीं कभी एक शांत स्मृति में हम अपने सपनों का इंतजार कर …
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एक वाक़िआ | साहिर लुधियानवी अँध्यारी रात के आँगन में ये सुब्ह के क़दमों की आहट ये भीगी भीगी सर्द हवा ये हल्की हल्की धुंदलाहट गाड़ी में हूँ तन्हा महव-ए-सफ़र और नींद नहीं है आँखों में भूले-बिसरे अरमानों के ख़्वाबों की ज़मीं है आँखों में अगले दिन हाथ हिलाते हैं पिछली पीतें याद आती हैं गुम-गश्ता ख़ुशियाँ आँखों में आँसू बन कर लहराती हैं सीने के वीराँ गो…
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सफल आदमी | भगवत रावत सफल आदमी के चेहरे पर उसकी उम्र की जगह लिखा होता है सफल आदमी वह नायक बनकर निकलता है अपने बचपन से और याद करता है उन्हें जो पड़े रह गए वहीं के वहीं कि एक वही निकल पाया ऊपर केवल अपने बलबूते पर वह अक्सर सोचता है उन चीज़ों के बारे में जिन्हें होना चाहिए था केवल उसके जीवन में वह उस दौड़ में कभी शामिल नहीं होता जहाँ पराजय का सुख होता ह…
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जैसे | अरुण कमल जैसे मैं बहुत सारी आवाज़ें नहीं सुन पा रहा हूँ चींटियों के शक्कर तोड़ने की आवाज़ पंखुड़ी के एक एक कर खुलने की आवाज़ गर्भ में जीवन बूँद गिरने की आवाज़ अपने ही शरीर में कोशिकाएँ टूटने की आवाज़ इस तेज़ बहुत तेज़ चलती पृथ्वी के अंधड़ में जैसे मैं बहुत सारी आवाज़ें नहीं सुन रहा हूँ वैसे ही तो होंगे वे लोग भी जो सुन नहीं पाते गोली चलने की आवाज़ ता…
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फिर क्या होगा उसके बाद? | बालकृष्ण राव फिर क्या होगा उसके बाद? उत्सुक होकर शिशु ने पूछा, माँ, क्या होगा उसके बाद? रवि से उज्ज्वल, शशि से सुंदर, नव किसलय दल से कोमलतर वधू तुम्हारी घर आएगी उस विवाह उत्सव के बाद! पल भर मुख पर स्मित की रेखा, खेल गई, फिर माँ ने देखा— कर गंभीर मुखाकृति शिशु ने फिर पूछा, माँ क्या उसके बाद? फिर नभ के नक्षत्र मनोहर, स्वर्ग-…
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अपने को देखना चाहता हूँ | चंद्रकांत देवताले मैं अपने को खाते हुए देखना चाहता हूँ किस जानवर या परिंदे की तरह खाता हूँ मैं मिट्ठू जैसी हरी मिर्च कुतरता है या बंदर गड़ाता है भुट्टे पर दाँत या साँड़ जैसे मुँह मारता है छबड़े पर मैं अपने को सोए हुए देखना चाहता हूँ माँद में रीछ की तरह मछली पानी में सोती होती जैसे मैं धुँध में सोया हुआ हूँ हँस रहा हूँ नींद …
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पृथ्वी का मंगल हो | अशोक वाजपेयी सुबह की ठंडी हवा में अपनी असंख्य हरी रंगतों में चमक-काँप रही हैं अनार-नींबू-नीम-सप्रपर्णी-शिरीष-बोगेनबेलिया-जवाकुसुम-सहजन की पत्तियाँ : धूप उनकी हरीतिमा पर निश्छल फिसल रही है : मैं सुनता हूँ उनकी समवेत प्रार्थना : पृथ्वी का मंगल हो! एक हरा वृंदगान है विलम्बित वसंत के उकसाए जिसमें तरह-तरह के नामहीन फूल स्वरों की तरह …
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अभिरूपा | अनामिका नहीं जानती मेरे जीवन का हासिल क्या मेरे वे सारे संबंध जो बन ही नहीं पाए वे मुलाकातें जो हुई ही नहीं वे रस्ते जो मुझसे छूट गए, या मैंने छोड़ दिये उड़ के दरवाज़े जो खोले नहीं मैंने शब्द जो उचारे नहीं और प्रस्ताव जो विचारे नहीं मेरे सगे थे वही जिनकी मैं सगी न हुई करते हैं मेरी परिचर्या इस घने जंगल में वे ही जब आधी रात को फूलती है वह कुम…
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ये बात समझ में आई नहीं | अहमद हातिब सिद्दीक़ी ये बात समझ में आई नहीं और अम्मी ने समझाई नहीं में कैसे मीठी बात करूँ जब मैं ने मिठाई खाई नहीं आपी भी पकाती हैं हलवा फिर वो भी क्यूँ हलवाई नहीं ये बात समझ में आई नहीं और अम्मी ने समझाई नहीं नानी के मियाँ तो नाना हैं दादी के मियाँ भी दादा हैं जब आपा से मैं ने ये पूछा बाजी के मियाँ क्या बाजा हैं वो हँस हँस …
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ज़मीं को जादू आता है! | गुलज़ार ये मेरे बाग की मिट्टी में कुछ तो है ये जादुई ज़मीं है क्या? ज़मीं को जादू आता है! अगर अमरूद बीजूँ मैं, तो ये अमरूद देती है अगर जामुन की गुठली डालूँ तो जामुन भी देती है करेला तो करेला.....निम्बू तो निम्बू! अगर मैं फूल माँगू तो गुलाबी फूल देती है मैं जो रंग दूँ उसे, वो रंग देती है ये सारे रंग क्या उसने कहीं नीचे छुपा रक्खे…
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मुहाना | डॉ दामोदर खड़से मैं चाहता हूँ ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठकर लिखूं कविता... पर सोचता हूँ जो लिखता है कविता क्या नहीं होता वह ज्वालामुखी के मुहाने परद्वारा Nayi Dhara Radio
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माँ का करघा | डॉ सूर्यबाला हीरे की कनियों से, मोती की लड़ियों से, चाँदी के तारों, बूटे, लाड़ दुलारों के, ख़ुशबू के धागों से, आँसू की धारों से इतने सपने, और सब सपने, इतने-इतने सारे सपने मेरी अम्माँ ने बुने झलमली आखों के हथकरघे पेद्वारा Nayi Dhara Radio
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विश्व की वसुंधरा सुहागिनी बनी रहे | श्यौराज सिंह ‘बेचैन गगन में सूर्य-चंद्र और चाँदनी बनी रहे चमन बना रहे चमन की स्वामिनी बनी रहे। कोयलों के कंठ की माधुरी बनी रहे। रागियों के– अधरों की रागिनी बनी रहे। गूँजते रहें भ्रमर किसलयों की चाह में, मेल-प्यार हो अपार, ज़िंदगी की राह में सब तरु सरस रहें, न पात टूट भू गहें। कली-कली– की गोद, नित सुगंध से भरी रहे…
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मौसियाँ | डॉ अनामिका वे बारिश में धूप की तरह आती हैं— थोड़े समय के लिए और अचानक! हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू और सधोर की साड़ी लेकर वे आती हैं झूला झुलाने पहली मितली की ख़बर पाकर और गर्भ सहलाकर लेती हैं अंतरिम रपट गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की! झाड़ती हैं जाले, सँभालती हैं बक्से, मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल, कर देती हैं…
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मेरी बाँसुरी मेरी भाषा है | शहंशाह आलम | शहंशाह आलम सुबह उठा तो देर शाम को घर पहुँचा सूरज चाँद था कि रात भर जागा क़बीले में अथक हम दिन भर शहरी हुए और रात को आदिवासी यह मेरी भाषा की आवाज़ थी जो पहुँच रही थी आदमी के झुंड में पूरी तरह साफ़ सुनी जाने वाली इतनी साफ़ भाषा कि हम लड़ सकें अपने शत्रुओं से मेरी भाषा मेरी बाँसुरी है और बाँसुरी मेरी आवाज़ इसी …
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नाक | वीरेन डंगवाल हस्ती की इस पिपहरी को यों ही बजाते रहियो मौला! आवाज़ बनी रहे आख़िर तक साफ-सुथरी-निष्कंपद्वारा Nayi Dhara Radio
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लिखने का अर्थ | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तुम किसे तलाश रहे हो इस ढिबरी की रौशनी में, लिखता था प्रेमचंद इस बेंच पर जाड़े की रातों में, नंगे सोता था निराला और ये है असंख्य शैया वाला अस्पताल इसके बेड नंबर 101 पर, मरा था मुक्तिबोध 102 पर राजकमल, 103 पर धूमिल बेड नंबर 104, 105, 106 तुम कौनसे बेड पर मरना पसंद करोगे ज़िन्दा रहना और मरते जाना, एक ही बात है कवि…
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अब वहाँ घोंसले हैं | दामोदर खड़से एक सूखा पेड़ खड़ा था नदी के किनारे विरक्त पतझड़ की विभूति लगाए काल का साक्षी अंतिम घड़ियों के ख़याल में... नदी, वैसे अर्से से इस इलाके से बहती है नदी ने कभी ध्यान नहीं दिया पेड़ के पत्ते सूख कर इसी नदी में बह लेते थे... इस बरसात में जब वह जवान हुई तब उसका किनारा पेड़ तक पहुँचा सावन का संदेशा पाकर लहरों ने बाँध दिया…
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इंतिज़ार | साहिर लुधियानवी चाँद मद्धम है आसमाँ चुप है नींद की गोद में जहाँ चुप है दूर वादी में दूधिया बादल झुक के पर्बत को प्यार करते हैं दिल में नाकाम हसरतें ले कर हम तिरा इंतिज़ार करते हैं इन बहारों के साए में आ जा फिर मोहब्बत जवाँ रहे न रहे ज़िंदगी तेरे ना-मुरादों पर कल तलक मेहरबाँ रहे न रहे! रोज़ की तरह आज भी तारे सुब्ह की गर्द में न खो जाएँ आ …
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पानी को क्या सूझी | भवानीप्रसाद मिश्र मैं उस दिन नदी के किनारे पर गया तो क्या जाने पानी को क्या सूझी पानी ने मुझे बूँद-बूँद पी लिया और मैं पिया जाकर पानी से उसकी तरंगों में नाचता रहा रात-भर लहरों के साथ-साथ बाँचता रहा!द्वारा Nayi Dhara Radio
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गीत - गोपालदास नीरज विश्व चाहे या न चाहे, लोग समझें या न समझें, आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे। हर नज़र ग़मगीन है, हर होंठ ने धूनी रमाई, हर गली वीरान जैसे हो कि बेवा की कलाई, ख़ुदकुशी कर मर रही है रोशनी तब आँगनों में कर रहा है आदमी जब चाँद-तारों पर चढ़ाई, फिर दियों का दम न टूटे, फिर किरन को तम न लूटे, हम जले हैं तो धरा को जगमगा कर ही उठेंगे…
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तुम्हारे भीतर - मंगलेश डबराल एक स्त्री के कारण तुम्हें मिल गया एक कोना तुम्हारा भी हुआ इंतज़ार एक स्त्री के कारण तुम्हें दिखा आकाश और उसमें उड़ता चिड़ियों का संसार एक स्त्री के कारण तुम बार-बार चकित हुए तुम्हारी देह नहीं गई बेकार एक स्त्री के कारण तुम्हारा रास्ता अंधेरे में नहीं कटा रोशनी दिखी इधर-उधर एक स्त्री के कारण एक स्त्री बची रही तुम्हारे भी…
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कुत्ता | उदयन वाजपेई कुत्ता होने वाली मृत्यु पर रोता है। देर रात किसी गली से निकल कर किसी घर के दरवाज़े पर ठिठकती मृत्यु को देखकर पहले वह भौंकता है फिर यह पाकर कि वह उसकी ओर ध्यान दिए बिना घर के भीतर जा रही है, वह रोना शुरू करता है दरअसल उसका भौंकना ही पिघलकर रोने में तब्दील हो जाता है उसका भौंकना उसका रोना ही है, झटकों में बाहर आता हुआ कुत्ता रोए …
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तुम रहना नयन | अजय जुगरान जीवन के अंतिम क्षण में जब काल बाँधें हथेलियाँ एकटक जब हों पुतलियाँ एकांत शयन में तुम रहना नयन में! जब टूटता श्वास खोले नई पहेलियाँ और मन लौटे विस्मृत बचपन में खेलने संग ले सब सखा सहेलियाँ उस खेल के अंतिम क्षण में तुम रहना नयन में! जब यम अथक बहेलिया जाल डाल घर उपवन में ले जाए तन की सब तितलियाँ सूदूर गगन में तुम रहना नयन में…
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गेंद | राजेश जोशी एक बच्चा करीब सात-आठ के लगभग अपनी छोटी-छोटी हथेलियों में गोल-गोल घुमाता एक बड़ी गेंद इधर ही चला आ रहा है और लो उसने गेंद को हवा में उछाल दिया! सूरज, तुम्हारी उम्र क्या रही होगी उस वक़्त!द्वारा Nayi Dhara Radio
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वे इसी पृथ्वी पर हैं | भगवत रावत | कार्तिकेय खेतरपाल इस पृथ्वी पर कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं ज़रूर जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं बचाए हुए हैं उसे अपने ही नरक में डूबने से वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं इतने नामालूम कि कोई उनका पता ठीक-ठीक बता नहीं सकता उनके अपने नाम हैं लेकिन वे इतने साधारण और इतने आमफह…
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नीम्बू माँगकर | चन्द्रकान्त देवताले बेहद कोफ़्त होती है इन दिनों इस कॉलोनी में रहते हुए जहाँ हर कोई एक-दूसरे को जासूस कुत्ते की तरह सूँघता है अपने-अपने घरों में बैठे लोग वहीं से कभी-कभार टेलीफोन के ज़रिये अड़ोस-पड़ोस की तलाशी लेते रहते हैं पर चेहरे पर एक मुस्कान चिपकी रहती है जो एक-दूसरे को कह देती है — " हम स्वस्थ हैं और सानंद और यह भी की तुम्हें …
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चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा - मीना कुमारी नाज़ चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा बुझ गई आस छुप गया तारा थरथराता रहा धुआँ तन्हा ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा हम-सफ़र कोई गर मिले भी कहीं दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा जलती-बुझती सी रौशनी के परे सिमटा सिमटा सा इक मकाँ तन्हा राह देखा करेगा सदियों तक छोड़ जाएँगे ये…
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एक औरत का पहला राजकीय प्रवास | अनामिका वह होटल के कमरे में दाख़िल हुई! अपने अकेलेपन से उसने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। कमरे में अंधेरा था। घुप्प अंधेरा था कुएँ का उसके भीतर भी! सारी दीवारें टटोली अंधेरे में, लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था! पूरा खुला था दरवाज़ा, बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था! सामने से गुज़रा जो ‘बेयरा’ तो आर्त्तभाव से उसे देखा! …
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मैं रास्ते भूलता हूँ और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं | चंद्रकांत देवताले मैं रास्ते भूलता हूँ और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं मैं अपनी नींद से निकल कर प्रवेश करता हूँ किसी और की नींद में इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है एक जिंदगी में एक ही बार पैदा होना और एक ही बार मरना जिन लोगों को शोभा नहीं देता मैं उन्हीं में से एक हूँ फिर भी नक्शे पर जगहों को दिखाने …
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सब तुम्हें नहीं कर सकते प्यार | कुमार अंबुज यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें प्यार यह तुम बार-बार नाक सिकोड़ते हो और माथे पर जो बल आते हैं हो सकता है किसी एक को इस पर आए प्यार लेकिन इसी वजह से कई लोग चले जाएँगे तुमसे दूर सड़क पार करने की घबराहट खाना खाने में जल्दबाज़ी या ज़रा-सी बात पर उदास होने की आदत कई लोगों को तुम्हें प्यार करने से रोक ही देगी…
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अब लौटना संभव नहीं है | अजय जुगरान तुम्हारे साथ की यात्रा में अब लौटना संभव नहीं है। क्यों सब कुछ हो रीति में जब प्रीति कम नहीं है? तुम्हारे साथ की यात्रा में अब लौटना संभव नहीं है। चलो सीमापार स्वप्न में जहाँ रूढ़ि बंध नहीं है। क्यों यहाँ रहे नीति में बंद जब श्वास छंद वहीं है? तुम्हारे साथ की यात्रा में अब लौटना संभव नहीं है। यूँ देखो झाँक मुझमें …
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उम्मीद | दामोदर खड़से कभी-कभी लगता रहा मुझे समय कैसे कटेगा जिंदगी का जब होगा नहीं कोई फूल बहेगी नहीं कोई नदी पहाड़ हो जाएँगे निर्वसन मौसम में न होगा कोई त्योहार हवाओं में होगी नहीं गंध समुद्र होगा खोया-खोया उदास शामें गुमसुम-गुमसुम और सुबह में न कोई उल्लास कैसे कटेगा तब समय जिंदगी का? सोच-सोच मैं होता रहता सदा अकेला पर आ जाती है ऐसे में कोई आवाज़ भी…
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मैं क्यों लिखता हूँ / भवानीप्रसाद मिश्र मैं कोई पचास-पचास बरसों से कविताएँ लिखता आ रहा हूँ अब कोई पूछे मुझसे कि क्या मिलता है तुम्हें ऐसा कविताएँ लिखने से जैसे अभी दो मिनट पहले जब मैं कविता लिखने नहीं बैठा था तब काग़ज़ काग़ज़ था मैं मैं था और कलम कलम मगर जब लिखने बैठा तो तीन नहीं रहे हम एक हो गएद्वारा Nayi Dhara Radio
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