साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।
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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Lovleen Mishra enacting a part from Moliere's 'The Miser' (translated by Hazrat Awara)
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नई धारा एकल के इस एपिसोड में देखिए मशहूर अभिनेत्री लवलीन मिश्रा द्वारा, हज़रत आवारा द्वारा अनुदित मौलियर के नाटक, 'कंजूस' में से एक अंश। नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें। दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ से मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़…
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चिड़िया | रामदरश मिश्रा चिड़िया उड़ती हुई कहीं से आयी बहुत देर तक इधर उधर भटकती हुई अपना घोंसला खोजती रही फिर थक कर एक जली हुई डाल पर बैठ गयी और सोचने लगी- आज जंगल में कोई आदमी आया था क्या?द्वारा Nayi Dhara Radio
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उसका चेहरा | राजेश जोशी अचानक गुल हो गयी बत्ती घुप्प अँधेरा हो गया चारों तरफ उसने टटोल कर ढूँढी दियासलाई और एक मोमबत्ती जलाई आधे अँधेरे और आधे उजाले के बीच उभरा उसका चेहरा न जाने कितने दिनों बाद देखा मैंने इस तरह उसका चेहरा जैसे किसी और ग्रह से देखा मैंने पृथ्वी को !द्वारा Nayi Dhara Radio
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गोल पत्थर | नरेश सक्सेना नोकें टूटी होंगी एक-एक कर तीखापन ख़त्म हुआ होगा किस-किस से टकराया होगा कितनी-कितनी बार पूरी तरह गोल हो जाने से पहले जब किसी भक्त ने पूजा या बच्चे ने खेल के लिए चुन लिया होगा तो खुश हुआ होगा कि सदमे में डूब गया होगा एक छोटी-सी नोक ही बचाकर रख ली होती किसी आततायी के माथे पर वार के लिए।…
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सांकल | रजनी तिलक चारदीवारी की घुटन घूँघट की ओट सहना ही नारीत्व तो बदलनी चाहिए परिभाषा। परम्पराओं का पर्याय बन चौखट की साँकल है जीवन-सार तो बदलना होगा जीवन-सार।द्वारा Nayi Dhara Radio
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झरबेर | केदारनाथ सिंह प्रचंड धूप में इतने दिनों बाद (कितने दिनों बाद) मैंने ट्रेन की खिड़की से देखे कँटीली झाड़ियों पर पीले-पीले फल ’झरबेर हैं’- मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा और कहीं गहरे एक बहुत पुराने काँटे ने फिर मुझे छेदाद्वारा Nayi Dhara Radio
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बचाना | राजेश जोशी एक औरत हथेलियों की ओट में दीये की काँपती लौ को बुझने से बचा रही है एक बहुत बूढ़ी औरत कमज़ोर आवाज़ में गुनगुनाते हुए अपनी छोटी बहू को अपनी माँ से सुना गीत सुना रही है एक बच्चा पानी में गिर पड़े चींटे को एक हरी पत्ती पर उठाने की कोशिश कर रहा है एक आदमी एलबम में अपने परिजनों के फोटो लगाते हुए अपने बेटे को उसके दादा दादी और नाना नानी…
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पास आओ मेरे | नरेंद्र कुमार पास आओ मेरे मुझे समझाओ ज़रा ये जो रोम-रोम में तुम्हारे नफ़रत रमी है तुममें ऐसी क्या कमी है खुद से पूछो ज़रा खुद को बताओ ज़रा व्हाट्सएप की जानकारी टीवी की डिबेट सारी साइड में रखो इसे इंसानियत की बात करें इसमें ऐसा क्या डर है मरहम होती है क्या ज़ख्म से पूछो ज़रा मेरा एक काम कर दो मुझे कहीं से ढूँढ कर वो प्रार्थना दो जिसमें हिंसा…
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Jeevan Nahi Mara Karta Hai | Gopaldas Neeraj
2:52
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जीवन नहीं मारा करता है | गोपालदस नीरज छिप छिप अंश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है। सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुया आँख का पानी और टूटना है उसको ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है। माला बिखर गई तो क्या है, खुद ह…
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Pitaon Ke Baar Mein Kuch Chooti Hui Panktiyan | Kumar Ambuj
2:38
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पिताओं के बारे में कुछ छूटी हुई पंक्तियाँ | कुमार अम्बुज एक दिन लगभग सभी पुरुष पिता हो जाते हैं जो नहीं होते वे भी उम्रदराज़ होकर बच्चों से, युवकों से इस तरह पेश आने लगते हैं जैसे वे ही उनके पिता हों पिताओं की सख़्त आवाज़ घर से बाहर कई जगहों पर कई लोगों के सामने गिड़गिड़ाती पाई जाती है वे ज़माने भर से क्रोध में एक अधूरा वाक्य बुदबुदाते हैं— 'यदि बा…
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सलामत रहें | दीपिका घिल्डियाल सलामत रहें, सबके इंद्रधनुष, जिनके छोर चाहे कभी हाथ ना आएं, फिर भी सबके खाने के बाद, बची रहे एक रोटी, ताकि भूखी ना लौटे, दरवाज़े तक आई बिल्ली और चिड़िया सलामत रहे, माँ की आंखों की रौशनी, क्योंकि माँ ही देख पाती है, सूखे हुए आंसू और बारिश में गीले बाल सलामत रहें, बेटियों के हाथों कढ़े मेज़पोश और बहुओं के हल्दी भरे हाथों की थ…
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ख़ुशआमदीद | गगन गिल दोस्त के इंतज़ार में उसने सारा शहर घूमा शहर का सबसे सुंदर फूल देखा शहर की सबसे शांत सड़क सोची एक क़िताब को छुआ धीरे-धीरे उसे देने के लिए कोई भी चीज़ उसे ख़ुशआमदीद कहने के लिए काफ़ी न थी !द्वारा Nayi Dhara Radio
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Tumhari Filon Mein Gaon Ka Mausam Gulabi Hai | Adam Gondvi
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तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है | अदम गोंडवी तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के यहाँ …
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Ab Kabhi Milna Nahi Hoga Aisa Tha | Vinod Kumar Shukla
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अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था | विनोद कुमार शुक्ल अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था और हम मिल गए दो बार ऎसा हुआ पहले पन्द्रह बरस बाद मिले फिर उसके आठ बरस बाद जीवन इसी तरह का जैसे स्थगित मृत्यु है जो उसी तरह बिछुड़ा देती है, जैसे मृत्यु पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ अबकी पड़ोस में वह रहने आई उसे तब न मेरा पता था न मुझे उसका। थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का प…
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उम्मीद की चिट्ठी | नीलम भट्ट उदासी भरे हताश दिनों में कहीं दूर खुशियों भरे देस से मेरी दहलीज़ तक पहुंचे कोई चिट्ठी उम्मीद की कलम से लिखी स्नेह भरे दिलासे से सराबोर... मौत की ख़बरों के बीच बीमारी की दहशत से डरे समय में जिंदगी की जीत का यक़ीन दिलाती बताती कि शक भरे माहौल में अपनेपन का भरोसा ज़िंदा है अभी!…
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Govind Namdev presents an excerpt from Surendra Verma's 'Surya Ki Antim Kiran Se Surya Ki Pehli Kiran Tak'
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नई धारा एकल के इस एपिसोड में देखिए मशहूर अभिनेता गोविंद नामदेव द्वारा, सुरेंद्र वर्मा के नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में से एक अंश। नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करते हैं और साथ ही साझा करते हैं उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें।…
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Cigarette Peeti Hui Aurat | Sarveshwar Dayal Saxena
1:54
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सिगरेट पीती हुई औरत | सर्वेश्वर दयाल सक्सेना पहली बार सिगरेट पीती हुई औरत मुझे अच्छी लगी। क्योंकि वह प्यार की बातें नहीं कर रही थी। —चारों तरफ़ फैलता धुआँ मेरे भीतर धधकती आग के बुझने का गवाह नहीं था। उसकी आँखों में एक अदालत थी : एक काली चमक जैसे कोई वकील उसके भीतर जिरह कर रहा हो और उसे सवालों का अनुमान ही नहीं उनके जवाब भी मालूम हों। वस्तुतः वह नहा…
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Jiske Sammohan Mein Pagal Dharti Hai Aakash Bhi Hai | Adam Gondvi
2:13
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जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है | अदम गोंडवी | आरती जैन जिसके सम्मोहन में पागल धरती है, आकाश भी है एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है, इतिहास भी है चिंतन के सोपान पे चढ़कर चाँद-सितारे छू आये लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है मानवमन के द्वन्द्व को आख़िर किस साँचे में ढालोगे ‘महारास’ की पृष्ठभूमि में ओशो का संन्यास भी है इन्द्रधनुष क…
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Restaurant Mein Intezar | Rajesh Joshi
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रेस्त्राँ में इंतज़ार | राजेश जोशी वो जिससे मिलने आई है अभी तक नहीं आया है वो बार बार अपना पर्स खोलती है और बंद करती है घड़ी देखती है और देखती है कि घड़ी चल रही है या नहीं एक अदृश्य दीवार उठ रही है उसके आसपास ऊब और बेचैनी के इस अदृश्य घेरे में वह अकेली है एकदम अकेली वेटर इस दीवार के बाहर खड़ा है वेटर उसके सामने पहले ही एक गिलास पानी रख चुका है धीरे …
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पतंग | आरती जैन हम कमरों की कैद से छूट छत पर पनाह लेते हैं जहाँ आज आसमां पर दो नन्हे धब्बे एक दूसरे संग नाच रहे हैं "पतंग? यह पतंग का मौसम तो नहीं" नीचे एम्बुलैंस चीरती हैं सड़कों को लाल आँखें लिए, विलाप करती अपनी कर्कश थकी आवाज़ में दामन फैलाये निरुत्तर सवाल पूछती ट्रेन में से झांकते हैं बुतों के चेहरे जिनके होठ नहीं पर आंखें बहुत सी हैं जो एकटक घूर…
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यात्रा | नरेश सक्सेना नदी के स्रोत पर मछलियाँ नहीं होतीं शंख–सीपी मूँगा-मोती कुछ नहीं होता नदी के स्रोत पर गंध तक नहीं होती सिर्फ़ होती है एक ताकत खींचती हुई नीचे जो शिलाओं पर छलाँगें लगाने पर विवश करती है सब कुछ देती है यात्रा लेकिन जो देते हैं धूप-दीप और जय-जयकार देते हैं वही मैल और कालिख से भर देते हैं धुआँ-धुआँ होती है नदी बादल-बादल होती है नदी…
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प्रेम के लिए फाँसी | अनामिका मीरा रानी तुम तो फिर भी ख़ुशक़िस्मत थीं, तुम्हें ज़हर का प्याला जिसने भी भेजा, वह भाई तुम्हारा नहीं था भाई भी भेज रहे हैं इन दिनों ज़हर के प्याले! कान्हा जी ज़हर से बचा भी लें, क़हर से बचाएँगे कैसे! दिल टूटने की दवा मियाँ लुक़मान अली के पास भी तो नहीं होती! भाई ने जो भेजा होता प्याला ज़हर का, तुम भी मीराबाई डंके की चोट पर हँसकर…
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Bhadka Rahe Hain Aag | Sahir Ludhianvi
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भड़का रहे हैं आग | साहिर लुधियानवी भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम। कुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हम। ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम। माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम।…
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Koi Bas Nahi Jaata | Nandkishore Acharya
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कोई बस नहीं जाता | नंदकिशोर आचार्य कोई बस नहीं जाता खंडहरों में लोग देखने आते हैं बस । जला कर अलाव आसपास उग आये घास-फूस और बिखरी सूखी टहनियों का एक रात गुज़ारी भी किसी ने यहाँ सुबह दम छोड़ जाते हुए केवल राख । खंडहर फिर भी उस का कृतज्ञ है बसेरा किया जिस ने उसे – रात भर की खातिर ही सही। उसे भला यह इल्म भी कब थाः गुज़रती है जो खंडहर पर फिर से खंडहर हो…
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Agar Tum Meri Jagah Hotey | Nirmala Putul
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अगर तुम मेरी जगह होते | निर्मला पुतुल ज़रा सोचो, कि तुम मेरी जगह होते और मैं तुम्हारी तो, कैसा लगता तुम्हें? कैसा लगता अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में होता तुम्हारा गाँव और रह रहे होते तुम घास-फूस की झोपड़ियों में गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम…
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मन बहुत सोचता है | अज्ञेय मन बहुत सोचता है कि उदास न हो पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए? शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले, पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए! नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े, खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ, पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी, धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर, सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे, वह कहूँ भी तो सुनने को कोई…
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भुतहा बाग़ | केदारनाथ सिंह उधर जाते हुए बचपन में डर लगता था राही अक्सर बदल देते थे रास्ता और उत्तर के बजाय निकल जाते थे दक्खिन से अबकी गया तो देखा भुतहा बाग़ में खेल रहे थे बच्चे वहाँ बन गए थे कच्चे कुछ पक्के मकान दिखते थे दूर से कुछ बिजली के खंभे भी लोगों ने बताया जिस दिन गाड़ा गया पहला खम्भा एक आवाज़-सी सुनाई पड़ी थी मिट्टी के नीचे से पर उसके बाद क…
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अपरिभाषित | अजेय जुगरान बारह - तेरह के होते - होते कुछ बच्चे खो जाते हैं अपनी परिभाषा खोजते - खोजते किसी का मन अपने तन से नहीं मिलता किसी का तन बचपन के अपने दोस्तों से। ये किशोर कट से जाते हैं आसपास सबसे और अपनी परिभाषा खोजने की ऊहापोह में अपने तन पर लिखने लगते हैं सुई काँटों टूटे शीशों से एक घनघोर तनाव - अपवाद की भाषा जो आस्तीनों - मफ़लरों के नीचे…
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हाथ थामना | तन्मय पाठक तुम समंदर से बेशक़ सीखना गिरना उठना परवाह ना करना पर तालाब से भी सीखते रहना कुछ पहर ठहर कर रहना तुम नदियों से बेशक़ सीखना अपनी राह पकड़ कर चलना संगम से भी पर सीखते रहना बाँहें खोल कर मिलना घुलना तुम याद रखना कि डूबना भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि तैरना तुम डूबने उतरना दरिया में बचपने पर भरोसा करना बच पाने की उम्मीद रखना ये बताने …
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हिटलर की चित्रकला | राजेश जोशी यह उम्मीस सौ आठ में उन दिनों की बात है जब हिटलर ने पेन्सिल से एक शांत गाँव का चित्र बनाया था यह सन् उन्नीस सौ आठ में उन दिनों की बात है जब दूसरी बार वियना की कला दीर्धा ने चित्रकला के लिए अयोग्य ठहरा दिया था हिटलर को उस छोटे से चित्र पर हिटलर के हस्ताक्षर थे इसलिए इंगलैण्ड के एक व्यवसायी ने जब नीलाम किया उस चित्र को…
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Zakir Hussain as Sanjay in Dharamvir Bharati's 'Andha Yug'
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नई धारा एकल के इस एपिसोड में देखिए मशहूर अभिनेता ज़ाकिर हुसैन द्वारा, धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ में से एक अंश। नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें। दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ से मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ तक और धर…
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Nadi Kabhi Nahi Sookhti | Damodar Khadse
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नदी कभी नहीं सूखती | दामोदर खड़से पौ फटने से पहले सारी बस्ती ही गागर भर-भरकर अपनी प्यास बुझाती रही फिर भी नदी कुँवारी ही रही क्योंकि, नदी कभी नहीं सूखती नदी, इस बस्ती की पूर्वज है! पीढ़ियों के पुरखे इसी नदी में डुबकियाँ लगाकर अपना यौवन जगाते रहे सूर्योदय से पहले सतह पर उभरे कोहरे में अंजुरी भर अनिष्ट अँधेरा नदी में बहाते रहे हर शाम बस्ती की स्त्रिया…
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दिन डूबा | रामदरश मिश्रा दिन डूबा अब घर जाएँगे कैसा आया समय कि साँझे होने लगे बन्द दरवाज़े देर हुई तो घर वाले भी हमें देखकर डर जाएँगे आँखें आँखों से छिपती हैं नज़रों में छुरियाँ दिपती हैं हँसी देख कर हँसी सहमती क्या सब गीत बिखर जाएँगे? गली-गली औ' कूचे-कूचे भटक रहा पर राह ने पूछे काँप गया वह, किसने पूछा- “सुनिए आप किधर जाएँगे?"…
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Thithurtey Lamp Post | Adnan Kafeel Darvesh
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ठिठुरते लैंप पोस्ट | अदनान कफ़ील दरवेश वे चाहते तो सीधे भी खड़े रह सकते थे लेकिन आदमियों की बस्ती में रहते हुए उन्होंने सीख ली थी अतिशय विनम्रता और झुक गए थे सड़कों पर आदमियों के पास, उन्हें देखने के अलग-अलग नज़रिए थे : मसलन, किसी को वे लगते थे बिल्कुल संत सरीखे दृढ़ और एक टाँग पर योग-मुद्रा में खड़े किसी को वे शहंशाह के इस्तक़बाल में क़तारबंद खड़े सिपाहिय…
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ख़ुद से | रेणु कश्यप गिरो कितनी भी बार मगर उठो तो यूँ उठो कि पंख पहले से लंबे हों और उड़ान न सिर्फ़ ऊँची पर गहरी भी हारना और डरना रहे बस हिस्सा भर एक लंबी उम्र का और उम्मीद और भरपूर मोहब्बत हों परिभाषाएँ जागो तो सुबह शाँत हो ठीक जैसे मन भी हो कि ख़ुद को देखो तो चूमो माथा गले लगो ख़ुद से चिपककर कि कब से कितने वक़्त से, सदियों से बल्कि उधार चल रहा है अप…
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Mera Mobile Number Delete Kar Dein Please | Uday Prakash
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मेरा मोबाइल नम्बर डिलीट कर दें प्लीज़ - उदय प्रकाश सबसे पहले सिर्फ़ आवाज़ थी कोई नाद था और उसके सिवा कुछ भी नहीं उसी आवाज़ से पैदा हुआ था ब्रह्माण्ड आवाज़ जब गायब होती है तो कायनात किसी सननाटे में डूब जाती है जब आप फ़ोन करते हैं क्या पता चलता नहीं आपको कि सननाटे के महासागर में डूबे किसी बहुत प्राचीन अभागे जहाज को आप पुकार रहे हैं? मेरा मोबाइल नम्बर…
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Prem Me Prem Ki Ummeed | Mamta Barhath
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प्रेम में प्रेम की उम्मीद | ममता बारहठ जीवन से बचाकर ले जाऊँगी देखना प्रेम के कुछ क़तरे मुट्ठियों में भींचकर प्रेम की ये कुछ बूँदें जो बची रह जाएँगी छाया से मृत्यु की बनेंगी समंदर और आसमान मिट्टी और हवा यही बनेंगी पहाड़ और जंगल और स्वप्न नए देखना तुम यह बचा हुआ प्रेम ही बनेगा फिर नया जन्म मेरा!द्वारा Nayi Dhara Radio
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Duniya Me Acche Logon Ki Kami Nahi Hai | Vinod Kumar Shukla
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दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है | विनोद कुमार शुक्ल दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है कहकर मैं अपने घर से चला। यहाँ पहुँचते तक जगह-जगह मैंने यही कहा और यही कहता हूँ कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। जहाँ पहुँचता हूँ वहाँ से चला जाता हूँ। दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है— बार-बार यही कह रहा हूँ और कितना समय बीत गया है लौटकर मै…
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Stree Ko Samajhne Ke Liye | Vishwanath Prasad Tiwari
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स्त्री को समझने के लिए - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कैसे उतरता है स्तनों में दूध कैसे झनकते हैं ममता के तार कैसे मरती हैं कामनाएँ कैसे झरती हैं दंतकथाएं कैसे टूटता है गुड़ियों का घर कैसे बसता है चूड़ियों का नगर कैसे चमकते हैं परियों के सपने... कैसे फड़कते हैं हिंस्र पशुओं के नथुने कितना गाढ़ा लांछन का रंग कितनी लम्बी चूल्हे की सुरंग कितना गाढ़ा सृजन का अ…
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Keerti ka Vihan Hun | Kanhaiya Lal Pandya 'Suman'
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कीर्ति का विहान हूँ | स्व. कन्हैया लाल पण्ड्या ‘सुमन’ मैं स्वतंत्र राष्ट्र की कीर्ति का विहान हूँ। काल ने कहा रुको शक्ति ने कहा झुको पाँव ने कहा थको किन्तु मैं न रुक सका, न झुक सका, न थक सका क्योंकि मैं प्रकृति प्रबोध का सतत् प्रमाण हूँ कीर्ति का विहान हूँ। भीत ने कहा डरो ज्वाल ने कहा जरो मृत्यु ने कहा मरो किन्तु मैं न डर सका, न जर सका, न मर सका क्…
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तय तो यही हुआ था - शरद बिलाैरे सबसे पहले बायाँ हाथ कटा फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए टुकड़ों में कटते चले गए ख़ून दर्द के धक्के खा-खा कर नशों से बाहर निकल आया था तय तो यही हुआ था कि मैं कबूतर की तौल के बराबर अपने शरीर का मांस काट कर बाज़ को सौंप दूँ और वह कबूतर को छोड़ दे सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराज़ू पर था और कबूतर वाला प…
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पगडण्डियाँ - मदन कश्यप हम नहीं जानते उन उन जगहों को वहाँ-वहाँ हमें ले जाती हैं पगडण्डियाँ जहाँ-जहाँ जाती हैं पगडण्डियाँ कभी खुले मैदान में तो कभी सघन झाड़ियों में कभी घाटियों में तो कभी पहाड़ियों में जाने कहाँ-कहाँ ले जाती हैं पगडण्डियों राजमार्गों की तरह पगडण्डियों का कोई बजट नहीं होता कोई योजना नहीं बनती बस बथान से बगान तक मेड़ से मचान तक खेत से …
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घर | अज्ञेय मेरा घर दो दरवाज़ों को जोड़ता एक घेरा है मेरा घर दो दरवाज़ों के बीच है उसमें किधर से भी झाँको तुम दरवाज़े से बाहर देख रहे होंगे तुम्हें पार का दृश्य दिख जाएगा घर नहीं दिखेगा। मैं ही मेरा घर हूँ। मेरे घर में कोई नहीं रहता मैं भी क्या मेरे घर में रहता हूँ मेरे घर में जिधर से भी झाँको...द्वारा Nayi Dhara Radio
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अभुवाता समाज | रूपम मिश्र वे शीशे-बासे से नहीं हरी कनई मिट्टी से बनी थीं जिसमें इतनी नमी थी कि एक सत्ता की चाक पर मनचाहा ढाल दिया जाता नाचती हुई एक स्त्री को अचानक कुछ याद आ जाता है सहम कर खड़ी हो जाती है माथे के पल््लू को और खींच कर दर्द को दबा कर एक भरभराई-सी हँसी हँसती है हमार मालिक बहुत रिसिकट हैं हमरा नाचना उनका नाहीं नीक लगता साथ पुराती दूसर…
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Hum Auratein hain Mukhautey Nahi | Anupam Singh
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हम औरतें हैं मुखौटे नहीं - अनुपम सिंह वह अपनी भट्ठियों में मुखौटे तैयार करता है उन पर लेबुल लगाकर सूखने के लिए लग्गियों के सहारे टाँग देता है सूखने के बाद उनको अनेक रासायनिक क्रियाओं से गुज़ारता है कभी सबसे तेज़ तापमान पर रखता है तो कभी सबसे कम ऐसा लगातार करने से अप्रत्याशित चमक आ जाती है उनमें विस्फोटक हथियारों से लैस उनके सिपाही घर-घर घूम रहे हैं क…
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Seema Bhargava Pahwa as Savitri in Mohan Rakesh's 'Adhe Adhure'
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नई धारा एकल के इस एपिसोड में देखिए मशहूर अभिनेता विपिन शर्मा द्वारा, राजेंद्र यादव द्वारा अनुदित आल्बेयर कामू के उपन्यास ‘अजनबी’ में से एक अंश। नई धारा एकल श्रृंखला में अभिनय जगत के सितारे, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों में से अंश प्रस्तुत करेंगे और साथ ही साझा करेंगे उन नाटकों से जुड़ी अपनी व्यक्तिगत यादें। दिनकर की कृति ‘रश्मिरथी’ से मोहन राकेश के नाट…
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क्रांतिपुरुष | चित्रा पँवार कल रात सपने के बगीचे में हवाखोरी करते भगत सिंह से मुलाकात हो गई मैंने पूछा शहीव-ए-आज़म! तुम क्रांतिकारी ना होते तो क्या होते? वह ठहाका मारकर हँसे फिर भी क्रांतिकारी ही होता पगली ! खेतों में धान त्रगाता हल चलाता और भूख के विरुद्ध कर देता क्रांति मगर सोचो अगर खेत भी ना होते तुम्हारे पास! तब क्या करते!! फिर,,ऐसे में कल्रम…
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Sheetleheri Mein Ek Boodhe Aadmi Ki Prathna | Kedarnath Singh
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शीतलहरी में एक बूढ़े आदमी की प्रार्थना | केदारनाथ सिंह ईश्वर इस भयानक ठंड में जहाँ पेड़ के पत्ते तक ठिठुर रहे हैं मुझे कहाँ मिलेगा वह कोयला जिस पर इन्सानियत का खून गरमाया जाता है एक ज़िन्दा लाल दहकता हुआ कोयला मेरी अँगीठी के लिए बेहद ज़रूरी और हमदर्द कोयला मुझे कहाँ मिलेगा इस ठंड से अकड़े हुए शहर में जहाँ वह हमेशा छिपाकर रखा जाता है घर के पिछवाड़े या …
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Tum Apne Rang Me Rang Lo To Holi Hai | Harivansh Rai Bachchan
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तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है | हरिवंशराय बच्चन तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है। देखी मैंने बहुत दिनों तक दुनिया की रंगीनी, किंतु रही कोरी की कोरी मेरी चादर झीनी, तन के तार छूए बहुतों ने मन का तार न भीगा, तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है। अंबर ने ओढ़ी है तन पर चादर नीली-नीली, हरित धरित्री के आँगन में सरसों पीली-पीली, सिंदूरी मंजरियों से ह…
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धरती का शाप | अनुपम सिंह मौत की ओर अग्रसर है धरती मुड़-मुड़कर देख रही है पीछे की ओर उसकी आँखें खोज रही हैं आदिम पुरखिनों के पद-चिह्न उन सखियों को खोज रही हैं जिनके साथ बड़ी होती फैली थी गंगा के मैदानों तक उसकी यादों में घुल रही हैं मलयानिल की हवाएँ जबकि नदियाँ मृत पड़ी हैं उसकी राहों में नदियों के कंकाल बटोरती मौत की ओर अग्रसर है धरती वह ले जा रही …
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