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Tumhari Kavita | Prashant Purohit

3:05
 
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तुम्हारी कविता | प्रशांत पुरोहित

तुम्हारी कविता में उसकी काली आँखें थीं-

कालिमा किसकी-

पुतली की,

भँवों की,

कोर की,

या काजल-घुले आँसुओं की झिलमिलाती झील की?

तुम्हारी ग़ज़ल में उसकी घनी ज़ुल्फ़ें थीं—

ज़ुल्फ़ें कैसीं-

ललाट लहरातीं,

कांधे किल्लोलतीं,

कमर डोलतीं,

या पसीने-पगी पेशानी पे पसरतीं, बट खोलतीं?

तुम्हारी नज़्म में उसकी आवाज़ थी -

आवाज़ कैसी-

गाती हुई,

बुलाती हुई,

अलसाती हुई,

या हाँफती काली आँखों से चुपचाप आती हुई?

तुम्हारे छंदों में उसकी पतली कमर थी-

कमर कैसी-

लहराती आँच-सी,

दूज के दो चाँद-सी,

नूरो-जमाल-सी,

या पसलियों व पेट को जोड़े रखने के असफल प्रयास-सी?

तुम्हारी कविता में उसके पाँव थे -

पाँव कैसे -

महावर-रचे,

मख़मल-पगे,

बिछुआ-सजे,

या जो फटी बिवाई के साथ धरती पकड़कर चले?

तुम्हारे गीतों में उसकी गोरी बाँहें थीं-

बाँहें कैसीं-

हरसिंगार-डाल,

वैजयंती-माल,

कोई अनंग-जाल,

या जो उठीं ऐंठन-भरी कसी मुट्ठियों को संभाल?

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तुम्हारी कविता में उसकी काली आँखें थीं-

कालिमा किसकी-

पुतली की,

भँवों की,

कोर की,

या काजल-घुले आँसुओं की झिलमिलाती झील की?

तुम्हारी ग़ज़ल में उसकी घनी ज़ुल्फ़ें थीं—

ज़ुल्फ़ें कैसीं-

ललाट लहरातीं,

कांधे किल्लोलतीं,

कमर डोलतीं,

या पसीने-पगी पेशानी पे पसरतीं, बट खोलतीं?

तुम्हारी नज़्म में उसकी आवाज़ थी -

आवाज़ कैसी-

गाती हुई,

बुलाती हुई,

अलसाती हुई,

या हाँफती काली आँखों से चुपचाप आती हुई?

तुम्हारे छंदों में उसकी पतली कमर थी-

कमर कैसी-

लहराती आँच-सी,

दूज के दो चाँद-सी,

नूरो-जमाल-सी,

या पसलियों व पेट को जोड़े रखने के असफल प्रयास-सी?

तुम्हारी कविता में उसके पाँव थे -

पाँव कैसे -

महावर-रचे,

मख़मल-पगे,

बिछुआ-सजे,

या जो फटी बिवाई के साथ धरती पकड़कर चले?

तुम्हारे गीतों में उसकी गोरी बाँहें थीं-

बाँहें कैसीं-

हरसिंगार-डाल,

वैजयंती-माल,

कोई अनंग-जाल,

या जो उठीं ऐंठन-भरी कसी मुट्ठियों को संभाल?

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