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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Kahani Train

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कहानी ट्रेन यानी बच्चों की कहानियाँ, सीधे आपके फ़ोन तक। यह पहल है आज के दौर के बच्चों को साहित्य और किस्से कहानियों से जोड़ने की। प्रथम, रेख़्ता व नई धारा की प्रस्तुति।
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Nayi Dhara Samvaad Podcast

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ये है नई धारा संवाद पॉडकास्ट। ये श्रृंखला नई धारा की वीडियो साक्षात्कार श्रृंखला का ऑडियो वर्जन है। इस पॉडकास्ट में हम मिलेंगे हिंदी साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध रचनाकारों से। सीजन 1 में हमारे सूत्रधार होंगे वरुण ग्रोवर, हिमांशु बाजपेयी और मनमीत नारंग और हमारे अतिथि होंगे डॉ प्रेम जनमेजय, राजेश जोशी, डॉ देवशंकर नवीन, डॉ श्यौराज सिंह 'बेचैन', मृणाल पाण्डे, उषा किरण खान, मधुसूदन आनन्द, चित्रा मुद्गल, डॉ अशोक चक्रधर तथा शिवमूर्ति। सुनिए संवाद पॉडकास्ट, हर दूसरे बुधवार। Welcome to Nayi Dhara Samvaa ...
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Nayidhara Ekal

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साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।
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Khule Aasmaan Mein Kavita

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यहाँ हम सुनेंगे कविताएं – पेड़ों, पक्षियों, तितलियों, बादलों, नदियों, पहाड़ों और जंगलों पर – इस उम्मीद में कि हम ‘प्रकृति’ और ‘कविता’ दोनों से दोबारा दोस्ती कर सकें। एक हिन्दी कविता और कुछ विचार, हर दूसरे शनिवार... Listening to birds, butterflies, clouds, rivers, mountains, trees, and jungles - through poetry that helps us connect back to nature, both outside and within. A Hindi poem and some reflections, every alternate Saturday...
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Udaya Raj Sinha Ki Rachnayein Podcast

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साप्ताहिक
 
स्वागत है आपका नई धारा रेडियो की एक और पॉडकास्ट श्रृंखला में। यह श्रृंखला नई धारा के संस्थापक श्री उदय राज सिंह जी के साहित्य को समर्पित है। खड़ी बोली प्रसिद्ध गद्य लेखक राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के पुत्र उदय राज सिंह ने अपने पिता की साहित्यिक धरोहर को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत से उपन्यास, कहानियाँ, लघुकथाएँ, नाटक आदि लिखे। सन 1950 में उदय राज सिंह जी ने नई धारा पत्रिका की स्थापना की जो आज 70+ वर्षों बाद भी साहित्य की सेवा में समर्पित है। उदयराज जी के इस जन्मशती वर्ष में हम उ ...
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देश हो तुम | अरुणाभ सौरभ में तुम्हारी कोख से नहीं तुम्हारी देह के मैल से उत्पन्न हुआ हूँ भारतमाता विघ्नहरत्ता नहीं बना सकती माँ तुम पर इतनी शक्ति दो कि भय-भूख से मुत्ति का रास्ता खोज सकूँ बुद्ध-सी करुणा देकर संसार में अहिंसा - शांति-त्याग की स्थापना हो में तुम्हारा हनु पवन पुत्र मेरी भुजाओं को वज्र शक्ति से भर दो कि संभव रहे कुछ अमरत्व और पूजा नहीं…
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हम मिलते हैं बिना मिले ही | केदारनाथ अग्रवाल हे मेरी तुम! हम मिलते हैं बिना मिले ही मिलने के एहसास में जैसे दुख के भीतर सुख की दबी याद में। हे मेरी तुम! हम जीते हैं बिना जिये ही जीने के एहसास में जैसे फल के भीतर फल के पके स्वाद में।द्वारा Nayi Dhara Radio
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कम से कम एक दरवाज़ा | सुधा अरोड़ा चाहे नक़्क़ाशीदार एंटीक दरवाज़ा हो या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना उस पर खूबसूरत हैंडल जड़ा हो या लोहे का कुंडा वह दरवाज़ा ऐसे घर का हो जहाँ माँ बाप की रज़ामंदी के बग़ैर अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से माता पिता कह सकें - 'जानते हैं, तुमने ग़लत फ़ैसला लिया फिर भी हमारी यही दुआ है ख़ुश रहो उसके साथ जिसे तुमने वरा है य…
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सुनो कबीर ! | नासिरा शर्मा सुनो कबीर, चलो मेरे साथ वहाँ जहाँ तुम्हारी प्रताड़ना के बावजूद डूब रहे हैं दोनों पक्ष ज़रूरत है उन्हें तुम्हारी फटकार की वह नहीं सुन रहे हैं हमारी बातें हमारी चेतावनी, कर रहे हैं मनमानी अंधविश्वास की पट्टी बंध चुकी है उनकी रौशन आँखों पर और आगे का रास्ता भूल , वह भटक रहे हैं पीछे बहुत पीछे अतीत की ओर तुम्हीं सिखा सकते हो, …
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सूर्यास्त के आसमान | आलोक धन्वा उतने सूर्यास्त के उतने आसमान उनके उतने रंग लम्बी सडकों पर शाम धीरे बहुत धीरे छा रही शाम होटलों के आसपास खिली हुई रौशनी लोगों की भीड़ दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे उनके कंधे जानी -पह्चानी आवाज़ें कभी लिखेंगें कवि इसी देश में इन्हें भी घटनाओं की तरह!द्वारा Nayi Dhara Radio
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पहले बच्चे के जन्म से पहले | नरेश सक्सेना साँप के मुँह में दो ज़ुबानें होती हैं। मेरे मुँह में कितनी हैं अपने बच्चे को दुआ किस ज़ुबान से दूँगा खून सनी उँगलियाँ झर तो नहीं जाएँगी पतझर में अपनी कौन-सी उँगली उसे पकड़ाऊँगा सात रंग बदलता है गिरगिट मैं कितने बदलता हूँ किस रंग की रोशनी का पाठ उसे पढ़ाऊँगा आओ मेरे बच्चे मुझे पुनर्जन्म देते हुए आओ मेरे मैल पर…
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इस समय | नीलेश रघुवंशी एक कोने में बिल्ली अपने बच्चों को दूध पिला रही है। छोटे-छोटे बच्चे और बिल्ली इतने सटे हुए हैं आपस में मुश्किल है उन्हें गिननाq एक औरत पेड़ में रस्सी का झुला डाल, झुला रही है बच्चे को साथ-साथ बच्चे के-औरत भी जा रही है धीरे-धीरे नींद में इस समय एक पत्ता भी नहीं खड़कना चाहिए।द्वारा Nayi Dhara Radio
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मैंने पूछा क्या कर रही हो | अज्ञेय मैंने पूछा यह क्या बना रही हो? उसने आँखों से कहा धुआँ पोंछते हुए कहा- मुझे क्या बनाना है! सब-कुछ अपने आप बनता है। मैने तो यही जाना है। कह लो भगवान ने मुझे यही दिया है। मेरी सहानुभूति में हठ था- मैंने कहा- कुछ तो बना रही हो या जाने दो, न सही बना नहीं रही क्या कर रही हो? वह बोली- देख तो रहे हो छीलती हूँ नमक छिड़कती …
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घरौंदा | एकता वर्मा धूल में नहाए शैतान बच्चे खेल रहे हैं घरौंदा-घरौंदा। जोड़ रहे हैं ईट के टुकडे, पत्थर, सीमेंट के गुटके बना रहे हैं नन्हे-न्हे घर हँस रहे हैं, तालियाँ पीट रहे हैं। यह फ़िलिस्तीन का दुर्भाग्य है कि उसके बच्चे अपने न्हे घरों को बनाने के लिए चुन रहे हैं मलबा पड़ोसियों के ज़मीदोज़ हुए मकानों से। मैंने पूछा क्या कर रहे हो?…
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एक बोसा | कैफ़ी आज़मी जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को सौ चराग अँधेरे में जगमगाने लगते हैं फूल क्या शगूफे क्या चाँद क्या सितारे क्या सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं रक्स करने लगतीं हैं मूरतें अजन्ता की मुद्दतों के लब-बस्ता ग़ार गाने लगते हैं फूल खिलने लगते हैं उजड़े उजड़े गुलशन में प्यासी प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं लम्हें भर को ये दुन…
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घिसी पेंसिल | रघुवीर सहाय फिर रात आ रही है। फिर वक्त आ रहा है। जब नींद दुःख दिन को संपूर्ण कर चलेंगे एकांत उपस्थत हो, 'सोने चलो' कहेगा क्या चीज़ दे रही है यह शांति इस घड़ी में ? एकांत या कि बिस्तर या फिर थकान मेरी ? या एक मुड़े कागज़ पर एक घिसी पेंसिल तकिये तले दबाकर जिसको कि सो गया हूँ ?द्वारा Nayi Dhara Radio
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सीखो | श्रीनाथ सिंह फूलों से नित हँसना सीखो, भौंरों से नित गाना। तरु की झुकी डालियों से नित, सीखो शीश झुकाना! सीख हवा के झोकों से लो, हिलना, जगत हिलाना! दूध और पानी से सीखो, मिलना और मिलाना! सूरज की किरणों से सीखो, जगना और जगाना! लता और पेड़ों से सीखो, सबको गले लगाना! वर्षा की बूँदों से सीखो, सबसे प्रेम बढ़ाना! मेहँदी से सीखो सब ही पर, अपना रंग चढ़…
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अपाहिज व्यथा | दुष्यंत कुमार ‎ अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ, तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ । ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ । अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी, उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ । वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं, जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ । तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला, तुम्हें क्या पता क…
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धूल | हेमंत देवलेकर धीरे-धीरे साथ छोड़ने लगते हैं लोग तब उन बेसहारा और यतीम होती चीज़ों को धूल अपनी पनाह में लेती है। धूल से ज़्यादा करुण और कोई नहीं संसार का सबसे संजीदा अनाथालय धूल चलाती है काश हम कभी धूल बन पाते यूं तो मिट्टी के छिलके से ज़्यादा हस्ती उसकी क्या पर उसके छूने से चीज़ें इतिहास होने लगती हैं। समय के साथ गाढ़ी होते जाना - धूल को प्रेम की त…
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दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के | फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के वीराँ है मय-कदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास हैं तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन देखे हैं हम ने हौसले पर्वरदिगार के दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के भूले…
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बेरोज़गार हम / शांति सुमन पिता किसान अनपढ़ माँ बेरोज़गार हैं हम जाने राम कहाँ से होगी घर की चिन्ता कम आँगन की तुलसी-सी बढ़ती घर में बहन कुमारी आसमान में चिड़िया-सी उड़ती इच्छा सुकुमारी छोटा भाई दिल्ली जाने का भरता है दम । पटवन के पैसे होते तो बिकती नहीं ज़मीन और तकाज़े मुखिया के ले जाते सुख को छीन पतले होते मेड़ों पर आँखें जाती है थम । जहाँ-तहाँ फटन…
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तुमसे मिलकर | गौरव तिवारी नदी अकेली होती है, पर उतनी नहीं जितनी अकेली हो जाती है सागर से मिलने के बाद। धरा अत्यधिक अकेली होती है क्षितिज पर, क्योंकि वहाँ मान लिया जाता है उसका मिलन नभ से। भँवरा भी तब तक नहीं होता तन्हा जब तक आकर्षित नहीं होता किसी फूल से। गलत है यह धारणा कि प्रेम कर देता है मनुष्य को पूरा मैं और भी अकेला हो गया हूँ, तुमसे मिलकर।…
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एक दुआ | कैफ़ी आज़मी अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे बस एक दुआ कि ख़ुदा तुझको कामयाब करे वो टाँक दे तेरे आँचल में चाँद और तारे तू अपने वास्ते जिस को भी इंतख़ाब करेद्वारा Nayi Dhara Radio
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घटती हुई ऑक्सीजन | मंगलेश डबराल अकसर पढ़ने में आता है दुनिया में ऑक्सीजन कम हो रही है। कभी ऐन सामने दिखाई दे जाता है कि वह कितनी तेज़ी से घट रही है रास्तों पर चलता हूँ खाना खाता हूँ पढ़ता हूँ सोकर उठता हूँ एक लम्बी जम्हाई आती है जैसे ही किसी बन्द वातानुकूलित जगह में बैठता हूँ। उबासी का एक झोका भीतर से बाहर आता है एक ताक़तवर आदमी के पास जाता हूँ तो …
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हम औरतें | वीरेन डंगवाल रक्त से भरा तसला है रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में हम हैं सूजे हुए पपोटे प्यार किए जाने की अभिलाषा सब्जी काटते हुए भी पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई प्रेतात्माएँ हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं दरवाज़ा खोलते ही अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं हम हैं इच्छा-मृग वंचित स्वप्…
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नागरिक पराभव | कुमार अम्बुज बहुत पहले से प्रारंभ करूँ तो उससे डरता हूँ जो अत्यंत विनम्र है कोई भी घटना जिसे क्रोधित नहीं करती बात-बात में ईश्वर को याद करता है जो बहुत डरता हूँ अति धार्मिक आदमी से जो मारा जाएगा अगले दिन की बर्बरता में उसे प्यार करना चाहता हूँ कक्षा तीन में पढ़ रही पड़ोस की बच्ची को नहीं पता आने वाले समाज की भयावहता उसे नहीं पता उसके…
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करूँ प्रेम ख़ुद से | शिवानी शर्मा किसी के लिए हूँ मैं ममता की मूरत, किसी के लिए अब भी छोटी सी बेटी ll तजुर्बों ने किया संजीदा मुझको , पर किसी के लिए अब भी अल्हड़ सी छोटी॥ कहीं पे हूँ माहिर, कहीं पे अनाड़ी, कभी लाँघ जाऊँ मुश्किलों की पहाड़ी॥ कभी अनगिनत यूँ ही यादें पिरोती, कभी होके मायूस पलकें भिगोती॥ कभी संग अपनों के बाँटू मैं खुशियाँ, अकेले कभी ढे…
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दो मिनट का मौन | केदारनाथ सिंह भाइयो और बहनों यह दिन डूब रहा है। इस डूबते हुए दिन पर दो मिनट का मौन जाते हुए पक्षी पर रुके हुए जल पर घिरती हुई रात पर दो मिनट का मौन जो है उस पर जो नहीं है उस पर जो हो सकता था उस पर दो मिनट का मौन गिरे हुए छिलके पर टूटी हुई घास पर हर योजना पर हर विकास पर दो मिनट का मौन इस महान शताब्दी पर महान शताब्दी के महान इरादों प…
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बेचैन बहारों में क्या-क्या है / क़तील बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है कुछ और भी साँ…
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दौड़ | रामदरश मिश्र वह आगे-आगे था मैं उसके पीछे-पीछे मेरे पीछे अनेक लोग थे हाँ, यह दौड़-प्रतिस्पर्धा थी लक्ष्य से कुछ ही दूर पहले एकाएक उसकी चाल धीमी पड़ गयी और रुक गया मैं आगे निकल गया जीत के गर्वीले सुख के उन्माद से मैं झूम उठा उसके हार-जन्य दुख की कल्पना से मेरा सुख और भी उन्मत्त हो उठा मूर्ख कहीं का मैं मन ही मन भुनभुनाया उन्माद की हँसी हँसता ह…
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जैसे जब से तारा देखा | अज्ञेय क्या दिया-लिया? जैसे जब तारा देखा सद्यःउदित —शुक्र, स्वाति, लुब्धक— कभी क्षण-भर यह बिसर गया मैं मिट्टी हूँ; जब से प्यार किया, जब भी उभरा यह बोध कि तुम प्रिय हो— सद्यःसाक्षात् हुआ— सहसा देने के अहंकार पाने की ईहा से होने के अपनेपन (एकाकीपन!) से उबर गया। जब-जब यों भूला, धुल कर मंज कर एकाकी से एक हुआ। जिया।…
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साल मुबारक! | आशीष पण्ड्या साल मुबारक! भगवा हो या लाल, मुबारक! साल मुबारक! आज नया कल हुआ पुराना, टिक टिक करता काल मुबारक! पैसे की भूखी दुनिया को, थाल में रोटी-दाल मुबारक! चिंताओं से लदी चाँद पर, बचे खुचे कुछ बाल मुबारक! यहाँ पड़े हैं जान के लाले, वो कहते लोकपाल मुबारक! काली करतूतों की गठरी, धवल रेशमी शाल मुबारक! ग़ैरत! इज्ज़त! शर्म? निरर्थक, अब तो म…
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जीवन बचा है अभी | शलभ श्रीराम सिंह जीवन बचा है अभी ज़मीन के भीतर नमी बरक़रार है बरकरार है पत्थर के भीतर आग हरापन जड़ों के अन्दर साँस ले रहा है! जीवन बचा है अभी रोशनी खाकर भी हरकत में हैं पुतलियाँ दिमाग सोच रहा है जीवन के बारे में ख़ून दिल तक पहुँचने की कोशिश में है! जीवन बचा है अभी सूख गए फूल के आसपास है ख़ुशबू आदमी को छोड़कर भागे नहीं हैं सपने भाष…
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ईश्वर के बच्चे | आलोक आज़ाद क्या आपने ईश्वर के बच्चों को देखा है? ये अक्सर सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में धरती से क्षितिज की और दौड़ लगा रहे होते हैं ये अपनी माँ की कोख से ही मज़दूर है। और अपने पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत है। ये किसी चमत्कार की तरह युद्ध में गिराए जा रहे खाने के थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं। और किसी चमत्कार की तरह ही …
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सुख का दुख / भवानीप्रसाद मिश्र ज़िन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है, इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है, क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ, बड़े सुख आ जाएँ घर में तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूँ। यहाँ एक बात इससे भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि, बड़े सुखों को देखकर मेरे बच्चे सहम जाते हैं, मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें सिखा दूँ कि सुख कोई डरने की चीज़ नह…
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वह मुझी में है भय | नंदकिशोर आचार्य एक अनन्त शून्य ही हो यदि तुम तो मुझे भय क्यों है ? कुछ है ही नहीं जब जिस पर जा गिरूँ चूर-चूर हो छितर जाऊँ उड़ जायें मेरे परखच्चे तब क्यों डरूँ? नहीं, तुम नहीं वह मुझी में है भय मुझ को जो मार देता है। और इसलिए वह रूप भी जो तुम्हें आकार देता है।द्वारा Nayi Dhara Radio
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एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता | शमशेर बहादुर सिंह एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता पूरब से पच्छिम को एक क़दम से नापता बढ़ रहा है कितनी ऊँची घासें चाँद-तारों को छूने-छूने को हैं जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ फिर क्यों दो बादलों के तार उसे महज़ उलझा रहे हैं?…
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माँ, मोज़े, और ख़्वाब | प्रशांत पुरोहित माँ के हाथों से बुने मोज़े मैं अपने पाँवों में पहनता हूँ, सिर पे रखता हूँ। मेरे बचपन से कुछ बुनती आ रही है, सब उसी के ख़्वाब हैं जो दिल में रखता हूँ। पाँव बढ़ते गए, मोज़े घिसते-फटते गए, हर माहे-पूस में एक और ले रखता हूँ। मैं माँगता जाता हूँ, वो फिर दे देती है - और एक नया ख़्वाब नए रंगो-डिज़ाइन में मेरे सब जाड…
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दुख | मदन कश्यप दुख इतना था उसके जीवन में कि प्यार में भी दुख ही था उसकी आँखों में झाँका दुख तालाब के जल की तरह ठहरा हुआ था उसे बाँहों में कसा पीठ पर दुख दागने के निशान की तरह दिखा उसे चूमना चाहा दुख होंठों पर पपड़ियों की तरह जमा था उसे निर्वस्त्र करना चाहा उसने दुख पहन रखा था जिसे उतारना संभव नहीं था।…
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बचपन की वह नदी | नासिरा शर्मा बचपन की वह नदी जो बहती थी मेरी नसों में जाने कितनी बार उतारा है मैंने उसे अक्षरों में पढ़ने वाले करते हैं शिकायत यह नदी कहाँ है जिसका ज़िक्र है अकसर आपकी कहानियों में? कैसे कहूँ कि यादों का भी एक सच होता है जो वर्तमान में कहीं नज़र नहीं आता वर्तमान का अतीत हो जाना भी समय के बहने जैसा है जैसे वह नदी बहती थी कभी पिघली चा…
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डेली पैसेंजर | अरुण कमल मैंने उसे कुछ भी तो नहीं दिया इसे प्यार भी तो नहीं कहेंगे एक धुँधले-से स्टेशन पर वह हमारे डब्बे में चढ़ी और भीड़ में खड़ी रही कुछ देर सीकड़ पकड़े पाँव बदलती फिर मेरी ओर देखा और मैंने पाँव सीट से नीचे कर लिए और नीचे उतार दिया झोला उसने कुछ कहा तो नहीं था वह आ गई और मेरी बग़ल में बैठ गई धीरे से पीठ तख़्ते से टिकाई और लंबी साँस …
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देहरी | गीतू गर्ग बुढ़ा जाती है मायके की ढ्योडियॉं अशक्त होती मॉं के साथ.. अकेलेपन को सीने की कसमसाहट में भरने की आतुरता निढाल आशंकाओं में झूलती उतराती.. थाली में परसी एक तरकारी और दाल देती है गवाही दीवारों पर चस्पाँ कैफ़ियत की अब इनकी उम्र को लच्छेदार भोजन नहीं पचता मन को चलाना इस उमर में नहीं सजता होंठ भीतर ही भीतर फड़फड़ाते हैं बिटिया को खीर पसं…
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पूरा दिन | गुलज़ार मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है, झपट लेता है, अंटी से कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की आहट भी नहीं होती, खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैं गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते हैं "तेरी गुज़री हुई पुश्तों का कर्जा है, तुझे किश्तें चुकानी है " ज़बरदस्ती कोई गिरवी रख लेता है, …
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ओंठ | अशोक वाजपेयी तराशने में लगा होगा एक जन्मांतर पर अभी-अभी उगी पत्तियों की तरह ताज़े हैं। उन पर आयु की झीनी ओस हमेशा नम है उसी रास्ते आती है हँसी मुस्कुराहट वहीं खिलते हैं शब्द बिना कविता बने वहीं पर छाप खिलती है दूसरे ओठों की वह गुनगुनाती है समय की अँधेरी कंदरा में बैठा कालदेवता सुनता है वह हंसती है। बर्फ़ में ढँकी वनराशि सुगबुगाती है वह चूमती ह…
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सौंदर्य का आश्चर्यलोक | सविता सिंह बचपन में घंटों माँ को निहारा करती थी मुझे वह बेहद सुंदर लगती थी उसके हाथ कोमल गुलाबी फूलों की तरह थे पाँव ख़रगोश के पाँव जैसे उसकी आँखें सदा सपनों से सराबोर दिखतीं उसके लंबे काले बाल हर पल उलझाए रखते मुझे याद है सबसे ज़्यादा मैं उसके बालों से ही खेला करती थी उसे गूँथती फिर खोलती थी जब माँ नहा-धोकर तैयार होती साड़ी …
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संकट | मदन कश्यप अक्सर ताला उसकी ज़ुबान पर लगा होता है जो बहुत ज़्यादा सोचता है जो बहुत बोलता है उसके दिमाग पर ताला लगा होता है संकट तब बढ़ जाता है जब चुप्पा आदमी इतना चुप हो जाए कि सोचना छोड़ दे और बोलने वाला ऐसा शोर मचाये कि उसकी भाषा से विचार ही नहीं, शब्द भी गुम हो जाएँ!द्वारा Nayi Dhara Radio
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हम नदी के साथ-साथ | अज्ञेय हम नदी के साथ-साथ सागर की ओर गए पर नदी सागर में मिली हम छोर रहे: नारियल के खड़े तने हमें लहरों से अलगाते रहे बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल हमारा मन उलझाते रहे नदी की नाव न जाने कब खुल गई नदी ही सागर में घुल गई हमारी ही गाँठ न खुली दीठ न धुली हम फिर, लौट कर फिर गली-गली अपनी पुरानी अस्ति की टोह में …
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सूई | रामदरश मिश्रा अभी-अभी लौटी हूँ अपनी जगह पर परिवार के एक पाँव में चुभा हुआ काँटा निकालकर फिर खोंस दी गयी हूँ धागे की रील में जहाँ पड़ी रहूंगी चुपचाप परिवार की हलचलों में अस्तित्वहीन-सी अदृश्य एकाएक याद आएगी नव गृहिणी को मेरी जब ऑफिस जाता उसका पति झल्लाएगा- अरे, कमीज़ का बटन टूटा हुआ है" गृहिणी हँसती हुई आएगी रसोईघर से और मुझे लेकर बटन टाँकने ल…
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दरार में उगा पीपल | अरविन्द अवस्थी ज़मीन से बीस फीट ऊपर किले की दीवार की दरार में उगा पीपल महत्वकांक्षा की डोर पकड़ लगा है कोशिश में ऊपर और ऊपर जाने की जीने के लिए खींच ले रहा है हवा से नमी सूरज से रोशनी अपने हिस्से की पत्तियाँ लहराकर दे रहा है सबूत अपने होने काद्वारा Nayi Dhara Radio
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क्या करूँ कोरा ही छोड़ जाऊँ काग़ज़? | अनूप सेठी क से लिखता हूँ कव्वा कर्कश क से कपोत छूट जाता है पंख फड़फड़ाता हुआ लिखना चाहता हूँ कला कल बनकर उत्पादन करने लगती है लिखता हूँ कर्मठ पढ़ा जाता है कायर डर जाता हूँ लिखूँगा क़ायदा अवतार लेगा उसमें से क़ातिल कैसा है यह काल कैसी काल की रचना-विरचना और कैसा मेरा काल का बोध बटी हुई रस्सी की तरह उलझते, छिटकते, टूटत…
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इतना मत दूर रहो गन्ध कहीं खो जाए | गिरिजाकुमार माथुर इतना मत दूर रहो गन्ध कहीं खो जाए आने दो आँच रोशनी न मन्द हो जाए देखा तुमको मैंने कितने जन्मों के बाद चम्पे की बदली सी धूप-छाँह आसपास घूम-सी गई दुनिया यह भी न रहा याद बह गया है वक़्त लिए मेरे सारे पलाश ले लो ये शब्द गीत भी कहीं न सो जाए आने दो आँच रोशनी न मन्द हो जाए उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहर…
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मिट मिट कर मैं सीख रहा हूँ | केदारनाथ अग्रवाल दूर कटा कवि मैं जनता का, कच-कच करता कचर रहा हूँ अपनी माटी; मिट-मिट कर मैं सीख रहा हूँ प्रतिपल जीने की परिपाटी कानूनी करतब से मारा जितना जीता उतना हारा न्याय-नेह सब समय खा गया भीतर बाहर धुआँ छा गया धन भी पैदा नहीं कर सका पेट-खलीसा नहीं भर सका लूट खसोट जहाँ होती है मेरी ताव वहाँ खोटी है मिली कचहरी इज़्ज़त थ…
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इसीलिए तो तुम पहाड़ हो | राजेश जोशी शिवालिक की पहाड़ियों पर चढ़ते हुए हाँफ जाता हूँ साँस के सन्तुलित होने तक पौड़ियों पर कई-कई बार रुकता हूँ आने को तो मैं भी आया हूँ यहाँ एक पहाड़ी गाँव से विंध्याचल की पहाड़ियों से घिरा है जो चारों ओर से मेरा बचपन भी गुज़रा है पहाड़ियों को धाँगते अवान्तर दिशाओं की पसलियों को टटोलते और पहाड़ी के छोर से उगती यज्ञ-अश्…
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हमारे शहर की स्त्रियाँ | अनूप सेठी एक साथ कई स्त्रियाँ बस में चढ़ती हैं एक हाथ से संतुलन बनाए एक हाथ में रुपए का सिक्का थामे बिना धक्का खाए काम पर पहुँचना है उन्हें दिन भर जुटे रहना है उन्हें टाइप मशीन पर, फ़ाइलों में साढ़े तीन पर रंजना सावंत ज़रा विचलित होंगी दफ़्तर से तीस मील दूर सात साल का अशोक सावंत स्कूल से लौट रहा है गर्मी से लाल हुआ पड़ोसिन से चाब…
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अंधेरे का स्वप्न | प्रियंका मैं उस ओर जाना चाहती हूँ जिधर हो नीम अँधेरा ! अंधेरे में बैठा जा सकता है थोड़ी देर सुकून से और बातें की जा सकती हैं ख़ुद से थोड़ी देर ही सही जिया जा सकता है स्वयं को ! अंधेरे में लिखी जा सकती है कविता हरे भरे पेड़ की फूलों से भरे बाग़ीचे की ओर उड़ती हुई तितलियों की अंधेरे में देखा जा सकता है सपना तुम्हारे साथ होने का तुम…
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