कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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कहानी ट्रेन यानी बच्चों की कहानियाँ, सीधे आपके फ़ोन तक। यह पहल है आज के दौर के बच्चों को साहित्य और किस्से कहानियों से जोड़ने की। प्रथम, रेख़्ता व नई धारा की प्रस्तुति।
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साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।
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ये है नई धारा संवाद पॉडकास्ट। ये श्रृंखला नई धारा की वीडियो साक्षात्कार श्रृंखला का ऑडियो वर्जन है। इस पॉडकास्ट में हम मिलेंगे हिंदी साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध रचनाकारों से। सीजन 1 में हमारे सूत्रधार होंगे वरुण ग्रोवर, हिमांशु बाजपेयी और मनमीत नारंग और हमारे अतिथि होंगे डॉ प्रेम जनमेजय, राजेश जोशी, डॉ देवशंकर नवीन, डॉ श्यौराज सिंह 'बेचैन', मृणाल पाण्डे, उषा किरण खान, मधुसूदन आनन्द, चित्रा मुद्गल, डॉ अशोक चक्रधर तथा शिवमूर्ति। सुनिए संवाद पॉडकास्ट, हर दूसरे बुधवार। Welcome to Nayi Dhara Samvaa ...
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यहाँ हम सुनेंगे कविताएं – पेड़ों, पक्षियों, तितलियों, बादलों, नदियों, पहाड़ों और जंगलों पर – इस उम्मीद में कि हम ‘प्रकृति’ और ‘कविता’ दोनों से दोबारा दोस्ती कर सकें। एक हिन्दी कविता और कुछ विचार, हर दूसरे शनिवार... Listening to birds, butterflies, clouds, rivers, mountains, trees, and jungles - through poetry that helps us connect back to nature, both outside and within. A Hindi poem and some reflections, every alternate Saturday...
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स्वागत है आपका नई धारा रेडियो की एक और पॉडकास्ट श्रृंखला में। यह श्रृंखला नई धारा के संस्थापक श्री उदय राज सिंह जी के साहित्य को समर्पित है। खड़ी बोली प्रसिद्ध गद्य लेखक राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के पुत्र उदय राज सिंह ने अपने पिता की साहित्यिक धरोहर को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत से उपन्यास, कहानियाँ, लघुकथाएँ, नाटक आदि लिखे। सन 1950 में उदय राज सिंह जी ने नई धारा पत्रिका की स्थापना की जो आज 70+ वर्षों बाद भी साहित्य की सेवा में समर्पित है। उदयराज जी के इस जन्मशती वर्ष में हम उ ...
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Ishwar Tumhari Madad Chahta Hai | Vishwanath Prasad Tiwari
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ईश्वर तुम्हारी मदद चाहता है | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बदल सकता है धरती का रंग बदल सकता है चट्टानों का रूप बदल सकती है नदियों की दिशा बदल सकती है मौसम की गति ईश्वर तुम्हारी मदद चाहता है। अकेले नहीं उठा सकता वह इतना सारा बोझ।द्वारा Nayi Dhara Radio
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मेरी बेटी | इब्बार रब्बी मेरी बेटी बनती है मैडम बच्चों को डाँटती जो दीवार है फूटे बरसाती मेज़ कुर्सी पलंग पर नाक पर रख चश्मा सरकाती (जो वहाँ नहीं है) मोहन कुमार शैलेश सुप्रिया कनक को डाँटती ख़ामोश रहो चीख़ती डपटती कमरे में चक्कर लगाती है हाथ पीछे बांधे अकड़ कर फ़्रॉक के कोने को साड़ी की तरह सम्हालती कॉपियाँ जाँचती वेरी पुअर गुड कभी वर्क हार्ड के फू…
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मुक्ति | केदारनाथ सिंह मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला मैं लिखने बैठ गया हूँ मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़' यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है मैं लिखना चाहती हूँ ‘पानी’ 'आदमी' 'आदमी' मैं लिखना चाहता हूँ एक बच्चे का हाथ एक स्त्री का चेहरा मैं पूरी ताक़त के साथ शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ़ यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा में भरी सड़क …
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Hum Laut Jayenge | Shashiprabha Tiwari
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हम लौट जाएंगे | शशिप्रभा तिवारी कितने रात जागकर हमने तुमने मिलकर सपना बुना था कभी इस नीम की डाल पर बैठ कभी उस मंदिर कंगूरे पर बैठ कभी तालाब के किनारे बैठ कभी कुएं के जगत पर बैठ बहुत सी कहानियां मैं सुनाती थी तुम्हें ताकि उन कहानियों में से कुछ अलग कहानी तुम लिख सको और अपनी तकदीर बदल डालो कितने रात जागकर हमने तुमने मिलकर सपना बुना था साथ तुम्हारे हम…
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पहरा | अर्चना वर्मा जहां आज बर्फ़ है बहुत पहले वहां एक नदी थी एक चेहरा है निर्विकार जमी हुई नदी. आंख, बर्फ़ में सुराख़ द्वार के भीतर है तो एक संसार मगर कैद हलचलों पर मुस्तैद महज़ अंधेरा है सख़्त और ख़ूँख़ार और गहरा है. पहरा है उस पर जो बर्फं की नसों में बहा नदी ने जिसे जम कर सहाद्वारा Nayi Dhara Radio
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बहुत पहले से | फ़िराक़ गोरखपुरी बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में हम ऐसे में तिरी यादों की चाद…
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समय नहीं लगता है | अजेय जुगरान आज के कल हो जाने में कल के कभी नहीं होने में समय नहीं लगता है। अक्सर इस छोटे से जीवन में अवसर को पाकर खोने में समय नहीं लगता है। अनुकूल की प्रतीक्षा में प्रतिकूल के आ जाने में समय नहीं लगता है। शुभ मुहूर्त का मंतव्य बनाते दृश्य गंतव्य अमूर्त होने में समय नहीं लगता है। इस पल में ही सब बीज हैं इस पल में ही सब हल हैं आज …
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Hum Hain Tana Huma Hain Bana | Uday Prakash
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हम हैं ताना, हम हैं बाना | उदय प्रकाश हम हैं ताना, हम हैं बाना। हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना॥ हम हैं ताना''॥ नाद हमीं, अनुनाद हमीं, निःशब्द हमीं गंभीरा, अंधकार हम, चाँद-सूरज हम, हम कान्हा, हम मीरा। हमीं अकेले, हमीं दु्केले, हम चुग्गा, हम दाना॥ हम हैं ताना'''॥ मंदिर-महजिद, हम. गुरुद्वारा, हम मठ, हम बैरागी हमीं पुजारी, हमीं देवता, हम क…
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चरित्र | तस्लीमा नसरीन तुम लड़की हो, यह अच्छी तरह याद रखना तुम जब घर की चौखट लाँघोगी लोग तुम्हें टेढ़ी नज़रों से देखेंगे तुम जब गली से होकर चलती रहोगी लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, सीटी बजाएँगे तुम जब गली पार कर मुख्य सड़क पर पहुँचोगी लोग तुम्हें बदचलन कहकर गालियाँ देंगे तुम हो जाओगी बेमानी अगर पीछे लौटोगी वरना जैसे जा रही हो जाओ।…
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पढ़ना मेरे पैर | ज्योति पांडेय मैं गई जबकि मुझे नहीं जाना था। बार-बार, कई बार गई। कई एक मुहानों तक न चाहते हुए भी… मेरे पैर मुझसे असहमत हैं, नाराज़ भी। कल्पनाओं की इतनी यात्राएँ की हैं कि अगर कभी तुम देखो तो पाओगे कि कितने थके हैं ये पाँव! जंगल की मिट्टी, पहाड़ों की घास और समंदर की रेत से भरी हैं बिवाइयाँ। नाख़ूनों पर पुत गया है- हरा-नीला मटमैला सब रं…
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Tinka Tinka Kaante Tode Sari Raat Kataai Ki | Gulzar
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तिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई की | गुलज़ार तिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई की क्यूँ इतनी लम्बी होती है चाँदनी रात जुदाई की नींद में कोई अपने-आप से बातें करता रहता है काल-कुएँ में गूँजती है आवाज़ किसी सौदाई की सीने में दिल की आहट जैसे कोई जासूस चले हर साए का पीछा करना आदत है हरजाई की आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं क्या तु…
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Kare Jo Parvarish Vo Hi Khuda Hai | Ajay Agyat
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करे जो परवरिश वो ही ख़ुदा है | अजय अज्ञात करे जो परवरिश वो ही ख़ुदा है उसी का मर्तबा सब से बड़ा है बुरे हालात में जो काम आए उसे पूजो वो सचमुच देवता है धुआं फैला है हर सू नफरतों का मुहब्बत का परिंदा लापता है न जाने हश्र क्या हो मंज़िलों का यहाँ अंधों की ज़द पे रास्ता है अगर हो साधना निष्काम अपनी जहाँ ढूढ़ो वहीं मिलता ख़ुदा है वहीं होती सदा सच्ची कमा…
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रथ दौड़ते हैं रंगीन फूलों के | केदारनाथ अग्रवाल रंग नहीं रथ दौड़ते हैं रंगीन फूलों के सांध्य गगन में। देखो-बस-देखो। रंग नहीं ध्वज फहरते हैं रंगीन स्वप्नों के सांध्य गगन में। झूमो-बस-झूमो! रंग नहीं नट नाचते हैं रंगीन छंदों के सांध्य गगन में! नाचो-बस-नाचो!द्वारा Nayi Dhara Radio
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जो हवा में है | उमाशंकर तिवारी जो हवा में है, लहर में है क्यों नहीं वह बात, मुझमें है? शाम कन्धों पर लिए अपने ज़िन्दगी के रू-ब-रू चलना रोशनी का हमसफ़र होना उम्र की कन्दील का जलना आग जो जलते सफ़र में है क्यों नहीं वह बात मुझमें है? रोज़ सूरज की तरह उगना शिखर पर चढ़ना, उतर जाना घाटियों में रंग भर जाना फिर सुरंगों से गुज़र जाना जो हँसी कच्ची उमर में ह…
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मैंने कहा बारिश | शहंशाह आलम मैंने कहा बारिश उसने कहा प्रेम मैंने कहा प्रेम उसने कहा पेड़ मैंने कहा पेड़ उसने कहा चिड़ियाँ मैंने कहा चिड़ियाँ उसने कहा जलकुंड मैंने कहा जलकुंड उसने कहा चंद्रमा मैंने कहा चंद्रमा उसने कहा उदासी फिर मैंने कुछ नहीं कहा देखा बादल उसकी उदासी को अपने पानी से धो रहा था।द्वारा Nayi Dhara Radio
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दुख / अचल वाजपेयी उसे जब पहली बार देखा लगा जैसे भोर की धूप का गुनगुना टुकड़ा कमरे में प्रवेश कर गया है अंधेरे बंद कमरे का कोना-कोना उजास से भर गया है एक बच्चा है जो किलकारियाँ मारता मेरी गोद में आ गया है एकांत में सैकड़ों गुलाब चिटख गए हैं काँटों से गुँथे हुए गुलाब एक धुन है जो अंतहीन निविड़ में दूर तक गहरे उतरती है मेरे चारों ओर उसने एक रक्षा-कवच …
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खाली घर | चंद्रकांता सब कुछ वही था सांगोपांग घर ,कमरे,कमरे की नक्काशीदार छत नदी पर मल्लाहों की इसरार भरी पुकार सडक पर हंगामों के बीच दौड़ते- भागते बेतरतीब हुजूम के हुजूम ! और आवाज़ों के कोलाज में खड़ा खाली घर! बोधिसत्व सा,निरुद्वेग,निर्पेक्ष समय सुन रहा था उसका बेआवाज़ झुनझुने की तरह बजना! देख रहा था गोद में चिपटाए दादू के झाड़फ़ानूस पापा की कद्दाव…
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नए दिन के साथ | केदारनाथ सिंह नए दिन के साथ एक पन्ना खुल गया कोरा हमारे प्यार का सुबह, इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो बहुत से मनहूस पन्नों में इसे भी कहीं रख दूंगा। और जब-जब हवा आकर उड़ा जाएगी अचानक बन्द पन्नों को कहीं भीतर मोरपंखी की तरह रक्खे हुए उस नाम को हर बार पढ़ लूगा।द्वारा Nayi Dhara Radio
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रेगिस्तान की रात है / दीप्ति नवल रेगिस्तान की रात है और आँधियाँ सी बनते जाते हैं निशां मिटते जाते हैं निशां दो अकेले से क़दम ना कोई रहनुमां ना कोई हमसफ़र रेत के सीने में दफ़्न हैं ख़्वाबों की नर्म साँसें यह घुटी-घुटी सी नर्म साँसें ख़्वाबों की थके-थके दो क़दमों का सहारा लिए ढूँढ़ती फिरती हैं सूखे हुए बयाबानों में शायद कहीं कोई साहिल मिल जाए रात के …
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पैड़ और पत्ते | आदर्श कुमार मिश्र पेड़ से पत्ते टूट रहे हैं पेड़ अकेला रहता है, उड़ - उड़कर पते दूर गए हैं पेड़ अकेला रहता है, कुछ पत्तों के नाम बड़े हैं, पहचान है छोटे कुछ पत्तों के काम बड़े पर बिकते खोटे कुछ पत्तों पर कोई शिल्पी अपने मन का चित्र बनाकर बेच रहा है कुछ पत्तों को लाला साहू अपने जूते पोंछ - पोंछकर फेक रहा है कुछ पत्ते बेनाम पड़े हैं, सूख…
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Main Isliye Likh Raha Hun | Achyutanand Mishra
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मैं इसलिए लिख रहा हूं | अच्युतानंद मिश्र मैं इसलिए लिख रहा हूं कि मेरे हाथ काट दिए जाएं मैं इसलिए लिख रहा हूं कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से मिलकर उन हाथों को रोकें जो इन्हें काटना चाहते हैंद्वारा Nayi Dhara Radio
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Lok Malhar | Dr Sheoraj Singh 'Bechain'
4:31
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लोक मल्हार | डॉ श्योराज सिंह 'बेचैन' सुन बहिना! मेरे जियरबा की बात उदासी मेरे मन बसी। सैंया तलाशें री बहना नौकरी देवर स्वप्न में फिल्मी छोकरी। मेरी बहिना, ननदी तलाशे भरतार, ससुर ढूँढे लखपति........मेरी बहिना! मैं ना पढ़ी , न मेरे बालका शोषण करे हैं मेरे मालिका मोइ न मिल्यौ री स्वराज । मेरी बहना गुलामों जैसी जिन्दगी । सुन बहना मेरे जियरबा की बात उदा…
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Khushi Kaisa Durbhagya | Manglesh Dabral
2:44
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खुशी कैसा दुर्भाग्य | मगलेश डबराल जिसने कुछ रचा नहीं समाज में उसी का हो चला समाज वही है नियन्ता जो कहता है तोडँगा अभी और भी कुछ जो है खूँखार हँसी है उसके पास जो नष्ट कर सकता है उसी का है सम्मान झूठ फ़िलहाल जाना जाता है सच की तरह प्रेम की जगह सिंहासन पर विराजती घृणा बुराई गले मिलती अच्छाई से मूर्खता तुम सन्तुष्ट हो तुम्हारे चेहरे पर उत्साह है। घूर्त…
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Chupchap Ullas | Bhawani Prasad Mishra
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चुपचाप उल्लास | भवानीप्रसाद मिश्र हम रात देर तक बात करते रहे जैसे दोस्त बहुत दिनों के बाद मिलने पर करते हैं और झरते हैं जैसे उनके आस पास उनके पुराने गाँव के स्वर और स्पर्श और गंध और अंधियारे फिर बैठे रहे देर तक चुप और चुप्पी में कितने पास आए कितने सुख कितने दुख कितने उल्लास आए और लहराए हम दोनों के बीच चुपचाप !…
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Seene Me Kya Hai Tumhare | Akshay Upadhyay
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सीने में क्या है तुम्हारे / अक्षय उपाध्याय कितने सूरज हैं तुम्हारे सीने में कितनी नदियाँ हैं कितने झरने हैं कितने पहाड़ हैं तुम्हारी देह में कितनी गुफ़ाएँ हैं कितने वृक्ष हैं कितने फल हैं तुम्हारी गोद में कितने पत्ते हैं कितने घोंसले हैं तुम्हारी आत्मा में कितनी चिड़ियाँ हैं कितने बच्चे हैं तुम्हारी कोख में कितने सपने हैं कितनी कथाएँ हैं तुम्हारे स…
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भूख / अच्युतानंद मिश्र मेरी माँ अभी मरी नहीं उसकी सूखी झुलसी हुई छाती और अपनी फटी हुई जेब अक्सर मेरे सपनों में आती हैं मेरी नींद उचट जाती है मैं सोचने लगता हूँ मुझे किसका ख्याल करना चाहिए किसके बारे में लिखनी चाहिए कविताद्वारा Nayi Dhara Radio
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Khejadi Se Ugi Ho | Nandkishore Acharya
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खेजड़ी-सी उगी हो | नंदकिशोर आचार्य खेजड़ी-सी उगी हो मुझ में हरियल खेजड़ी सी तुम सूने, रेतीले विस्तार में : तुम्हीं में से फूट आया हूँ ताज़ी, घनी पत्तियों-सा। कभी पतझड़ की हवाएँ झरा देंगी मुझे जला देंगी कभी ये सुखे की आहें! तब भी तुम रहोगी मुझे भजती हुई अपने में सींचता रहूँगा मैं तुम्हें अपने गहनतम जल से। जब तलक तुम हो मेरे खिलते रहने की सभी सम्भावन…
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Raat Yun Kehne Laga Mujhse Gagan Ka Chand | Ramdhari Singh 'Dinkar'
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रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद / रामधारी सिंह "दिनकर" रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते; और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? ह…
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पिता के घर में | रूपम मिश्रा पिता क्या मैं तुम्हें याद हूँ! मुझे तो तुम याद रहते हो क्योंकि ये हमेशा मुझे याद कराया गया फासीवाद मुझे कभी किताब से नहीं समझना पड़ा पिता के लिए बेटियाँ शरद में देवभूमि से आई प्रवासी चिड़िया थीं या बँसवारी वाले खेत में उग आई रंग-बिरंगी मौसमी घास पिता क्या मैं तुम्हें याद हूँ! शुकुल की बेटी हो! ये आखर मेरे साथ चलता रहा ज…
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पास | अशोक वाजपेयी पत्थर के पास था वृक्ष वृक्ष के पास थी झाड़ी झाड़ी के पास थी घास घास के पास थी धरती धरती के पास थी ऊँची चट्टान चट्टान के पास था क़िले का बुर्ज बुर्ज के पास था आकाश आकाश के पास था शुन्य शुन्य के पास था अनहद नाद नाद के पास था शब्द शब्द के पास था पत्थर सब एक-दूसरे के पास थे पर किसी के पास समय नहीं था।…
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Padhakku Ka Soojh | Ramdhari Singh 'Dinkar'
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पढ़क्कू की सूझ | रामधारी सिंह "दिनकर" एक पढ़क्कू बड़े तेज थे, तर्कशास्त्र पढ़ते थे, जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नए बात गढ़ते थे। एक रोज़ वे पड़े फिक्र में समझ नहीं कुछ न पाए, "बैल घुमता है कोल्हू में कैसे बिना चलाए?" कई दिनों तक रहे सोचते, मालिक बड़ा गज़ब है? सिखा बैल को रक्खा इसने, निश्चय कोई ढब है। आखिर, एक रोज़ मालिक से पूछा उसने ऐसे, "अजी, बिना दे…
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ढहाई | प्रशांत पुरोहित उसने पहले मेरे घर के दरवाज़े को तोड़ा, छज्जे को पटका फिर, बालकनी को टहोका, अब दीवारों का नम्बर आया, तो उन्हें भी गिराया, मेरे छोटे मगर उत्तुंग घर की ज़मीन चौरस की, मेरी बच्ची किसी बची-खुची मेहराब के नीचे सो न जाए कहीं, हरिक छोटे छज्जे को अपने लोहे के हाथ से सहलाया, मेरे आँगन को पथराया उसका लोहा ग़ुस्से से गर्म था, लाल था, उसे…
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उस रोज़ भी | अचल वाजपेयी उस रोज़ भी रोज़ की तरह लोग वह मिट्टी खोदते रहे जो प्रकृति से वंध्या थी उस आकाश की गरिमा पर प्रार्थनाएँ गाते रहे जो जन्मजात बहरा था उन लोगों को सौंप दी यात्राएँ जो स्वयं बैसाखियों के आदी थे उन स्वरों को छेड़ा जो सदियों से मात्र संवादी थे पथरीले द्वारों पर दस्तकों का होना भर था वह न होने का प्रारंभ था…
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यह किसका घर है? | रामदरश मिश्रा "यह किसका घर है?" "हिन्दू का।" "यह किसका घर है?" "मुसलमान का।" यह किसका घर है?" "ईसाई का।” शाम होने को आयी सवेरे से ही भटक रहा हूँ मकानों के इस हसीन जंगल में कहाँ गया वह घर जिसमें एक आदमी रहता था? अब रात होने को है। मैं कहाँ जाऊँगा?द्वारा Nayi Dhara Radio
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एक आशीर्वाद | दुष्यंत कुमार जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये रूठना मचलना सीखें। हँसें मुस्कुराएँ गाएँ। हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें उँगली जलाएँ। अपने पाँव पर खड़े हों। जा तेरे स्वप्न बड़े हों।द्वारा Nayi Dhara Radio
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Baarish Mein Joote Ke Bina Nikalta Hun Ghar Se | Shahanshah Alam
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बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से | शहंशाह आलम बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से बचपन में हम सब कितनी दफ़ा निकल जाते थे घर से नंगे पाँव बारिश के पानी में छपाछप करने उन दिनों हम कवि नहीं हुआ करते थे ख़ालिस बच्चे हुआ करते थे नए पत्ते के जैसे बारिश में बिना जूते के निकलना अपने बचपन को याद करना है इस निकलने में फ़र्क़ इतना भर है कि माँ की आ…
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Kumhaar Akela Shaks Hota Hai | Shahanshah Alam
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कुम्हार अकेला शख़्स होता है | शहंशाह आलम जब तक एक भी कुम्हार है जीवन से भरे इस भूतल पर और मिट्टी आकार ले रही है समझो कि मंगलकामनाएं की जा रही हैं नदियों के अविरत बहते रहने की कितना अच्छा लगता है मंगलकामनाएं की जा रही हैं अब भी और इस बदमिजाज़ व खुर्राट सदी में कुम्हार काम-भर मिट्टी ला रहा है कुम्हार जब सुस्ताता बीड़ी पीता है बीवी उसकी आग तैयार करती है …
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Sagar Se Milkar Jaise | Bhavani Prasad Mishra
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सागर से मिलकर जैसे / भवानीप्रसाद मिश्र सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी सम्पन्नों से मिलकर व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है तो कहना चाहिए सम्पन्न व्यक्ति व्यक्ति नहीं है वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है कई बातों का जमाव है सही किसी भी …
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एक बार जो | अशोक वाजपेयी एक बार जो ढल जाएँगे शायद ही फिर खिल पाएँगे। फूल शब्द या प्रेम पंख स्वप्न या याद जीवन से जब छूट गए तो फिर न वापस आएँगे। अभी बचाने या सहेजने का अवसर है अभी बैठकर साथ गीत गाने का क्षण है। अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है। कुम्हलाने के बाद झुलसकर ढह जाने के बाद फिर बैठ पछताएँगे। एक बार जो ढल जाएँगे शायद ही फिर ख…
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आँगन | रामदरश मिश्रा तने हुए दो पड़ोसी दरवाज़े एक-दूसरे की आँखों में आँखें धँसाकर गुर्राते रहे कुत्तों की तरह फेंकते रहे आग और धुआँ भरे शब्दों का कोलाहल खाते रहे कसमें एक -दूसरे को समझ लेने की फिर रात को एक-दूसरे से मुँह फेरकर सो गये रात के सन्नाटे में दोनों घरों की खिड़कियाँ खुलीं प्यार से बोलीं- "कैसी हो बहना?" फिर देर तक दो आँगन आपस में बतियाते र…
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Shabd Jo Parinde Hain | Nasira Sharma
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शब्द जो परिंदे हैं | नासिरा शर्मा शब्द जो परिंदे हैं। उड़ते हैं खुले आसमान और खुले ज़हनों में जिनकी आमद से हो जाती है, दिल की कंदीलें रौशन। अक्षरों को मोतियों की तरह चुन अगर कोई रचता है इंसानी तस्वीर,तो क्या एतराज़ है तुमको उस पर? बह रहा है समय,सब को लेकर एक साथ बहने दो उन्हें भी, जो ले रहें हैं साँस एक साथ। डाल के कारागार में उन्हें, क्या पाओगे सि…
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बचे हुए शब्द | मदन कश्यप जितने शब्द आ पाते हैं कविता में उससे कहीं ज़्यादा छूट जाते हैं। बचे हुए शब्द छपछप करते रहते हैं मेरी आत्मा के निकट बह रहे पनसोते में बचे हुए शब्द थल को जल को हवा को अग्नि को आकाश को लगातार करते रहते हैं उद्वेलित मैं इन्हें फाँसने की कोशिश करता हूँ तो मुस्कुरा कर कहते हैं: तिकड़म से नहीं लिखी जाती कविता और मुझ पर छींटे उछाल क…
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परिचय | अंजना टंडन अब तक हर देह के ताने बाने पर स्थित है जुलाहे की ऊँगलियों के निशान बस थोड़ा सा अंदर रूह तक जा धँसे हैं, विश्वास ना हो तो कभी किसी की रूह की दीवारों पर हाथ रख देखना तुम्हारे दस्ताने का माप भी शर्तिया उसके जितना निकलेगा।द्वारा Nayi Dhara Radio
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सूर्य | नरेश सक्सेना ऊर्जा से भरे लेकिन अक्ल से लाचार, अपने भुवनभास्कर इंच भर भी हिल नहीं पाते कि सुलगा दें किसी का सर्द चुल्हा ठेल उढ़का हुआ दरवाजा चाय भर की ऊष्मा औ' रोशनी भर दें किसी बीमार की अंधी कुठरिया में सुना सम्पाती उड़ा था इसी जगमग ज्योति को छूने झुलस कर देह जिसकी गिरी धरती पर धुआँ बन पंख जिसके उड़ गए आकाश में हे अपरिमित ऊर्जा के स्रोत कोई…
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लड़की | प्रतिभा सक्सेना आती है एक लड़की, मगन-मुस्कराती, खिलखिलाकर हँसती है, सब चौंक उठते हैं - क्यों हँसी लड़की ? उसे क्या पता आगे का हाल, प्रसन्न भावनाओं में डूबी, कितनी जल्दी बड़ी हो जाती है, सारे संबंध मन से निभाती ! कोई नहीं जानता, जानना चाहता भी नहीं क्या चाहती है लड़की मन की बात बोल दे तो बदनाम हो जाती है लड़की और एक दिन एक घर से दूसरे घर, अन…
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जरखरीद देह - रूपम मिश्र हम एक ही पटकथा के पात्र थे एक ही कहानी कहते हुए हम दोनों अलग-अलग दृश्य में होते जैसे एक दृश्य तुम देखते हुए कहते तुमसे कभी मिलने आऊँगा तुम्हारे गाँव तो नदी के किनारे बैठेंगे जी भर बातें करेंगे तुम बेहया के हल्के बैंगनी फूलों की अल्पना बनाना उसी दृश्य में तुमसे आगे जाकर देखती हूँ नदी का वही किनारा है बहेरी आम का वही पुराना पे…
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ख़ालीपन | विनय कुमार सिंह माँ अंदर से उदास है सब कुछ वैसा ही नहीं है जो बाहर से दिख रहा है वैसे तो घर भरा हुआ है सब हंस रहे हैं खाने की खुशबू आ रही है शाम को फिल्म देखना है पिताजी का नया कुर्ता सबको अच्छा लग रहा है लेकिन माँ उदास है. बच्चा नौकरी करने जा रहा है कई सालों से घर, घर था अब नहीं रहेगा अब माँ के मन के एक कोने में हमेशा खालीपन रहेगा !…
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हम न रहेंगे | केदारनाथ अग्रवाल हम न रहेंगे- तब भी तो यह खेत रहेंगे; इन खेतों पर घन घहराते शेष रहेंगे; जीवन देते, प्यास बुझाते, माटी को मद-मस्त बनाते, श्याम बदरिया के लहराते केश रहेंगे! हम न रहेंगे- तब भी तो रति-रंग रहेंगे; लाल कमल के साथ पुलकते भृंग रहेंगे! मधु के दानी, मोद मनाते, भूतल को रससिक्त बनाते, लाल चुनरिया में लहराते अंग रहेंगे।…
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तन गई रीढ़ | नागार्जुन झुकी पीठ को मिला किसी हथेली का स्पर्श तन गई रीढ़ महसूस हुई कन्धों को पीछे से, किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें तन गई रीढ़ कौंधी कहीं चितवन रंग गए कहीं किसी के होंठ निगाहों के ज़रिये जादू घुसा अन्दर तन गई रीढ़ गूँजी कहीं खिलखिलाहट टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा भर गए कर्णकुहर तन गई रीढ़ आगे से आया अलकों के तैलाक्त परिमल का झो…
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मृत्यु - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी मेरे जन्म के साथ ही हुआ था उसका भी जन्म... मेरी ही काया में पुष्ट होते रहे उसके भी अंग में जीवन-भर सँवारता रहा जिन्हें और ख़ुश होता रहा कि ये मेरे रक्षक अस्त्र हैं दरअसल वे उसी के हथियार थे अजेय और आज़माये हुए मैं जानता था कि सब कुछ जानता हूँ मगर सच्चाई यह थी कि मैं नहीं जानता था कि कुछ नहीं जानता हूँ... मैं सोचता था फ…
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