Pagdandiyan | Madan Kashyap
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पगडण्डियाँ - मदन कश्यप
हम नहीं जानते उन उन जगहों को
वहाँ-वहाँ हमें ले जाती हैं पगडण्डियाँ
जहाँ-जहाँ जाती हैं पगडण्डियाँ
कभी खुले मैदान में
तो कभी सघन झाड़ियों में कभी घाटियों में तो कभी पहाड़ियों में जाने कहाँ-कहाँ ले जाती हैं पगडण्डियों
राजमार्गों की तरह
पगडण्डियों का कोई बजट नहीं होता कोई योजना नहीं बनती
बस बथान से बगान तक
मेड़ से मचान तक
खेत से खलिहान तक
और टोले से सिवान तक चक्कर लगाने वाले कामकाजी पाँव बनाते हैं पगडण्डियाँ
थकी हुई नींद की तरह सपाट होती हैं पगडण्डियाँ जिन पर सपनों की तरह उगे होते हैं पाँव के निशान
सपनों का
जो कभी कीचड़ से गीले होकर संकल्पों के पाँव से चिपक जाते हैं तो कभी धूल से हल्के होकर इधर-उधर बिखर जाते हैं बड़ा अटूट रिश्ता है पगडण्डियों से
सिर्फ पाँव ही नहीं सपने भी बनाती हैं पगडण्डियाँ
पूरे गाँव की जिजीविषा के पाँव पूरे गाँव का गाँव की तरह ज़िन्दा रहने का सपना
पगडण्डियों पर गाड़ियाँ नहीं चलतीं फौजी झण्डा-परेड नहीं होती टैंकों की गड़गड़ाहट भी सुनायी नहीं देती पगडण्डियों पर चलते हैं गाँव
चलते हैं
खेतों से धान के बोझे और हरे चारे लाने वाले किसान नमक-हल्दी के लिए हाट जाने वाली कलकतियों की औरतें जलावन के लिए बगीचों से सूखे पत्ते चुनकर लाने वाले बच्चे
अपनी मिहनत से
किसान, औरतें और बच्चे इतिहास के साथ-साथ पगडण्डियाँ बनाते हैं और जब कभी पगडण्डियों को छोड़ राजमार्गों पर निकल आते हैं इतिहास बदल जाता है!
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