Main Shamil Hun Ya Na Hun | Nasira Sharma
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मैं शामिल हूँ या न हूँ | नासिरा शर्मा
मैं शामिल हूँ या न हूँ मगर हूँ तो
इस काल- खंड की चश्मदीद गवाह!
बरसों पहले वह गर्भवती जवान औरत
गिरी थी, मेरे उपन्यासों के पन्नों पर
ख़ून से लथपथ।
ईरान की थी या फिर टर्की की
या थी अफ़्रीका की या फ़िलिस्तीन की
या फिर हिंदुस्तान की
क्या फ़र्क़ पड़ता है वह कहाँ की थी।
वह लेखिका जो पूरे दिनों से थी
जो अपने देश के इतिहास को
शब्दों का जामा पहनाने के जुर्म में
लगाती रही चक्कर न्यायालय का
देती रही सफ़ाई ऐतिहासिक घटनाओं
की सच्चाई की,और लौटते हुए
फ़िक्रमंद रही ,उस बच्चे के लिए
जो सुन रहा था किसी अभिमन्यु की तरह
सारी कारगुज़ारियाँ ।
या फिर वह जो दबा न पाई अपनी आवाज़ और
चली गई सलाख़ों के पीछे
गर्भ में पलते हुए एक नए चेहरे के साथ।
यह तो चंद हक़ीक़तें व फसानें हैं
जाने कितनों ने, तख़्त पलटे हैं
हुकमरानों के
छोड़ कर अपनी जन्नतों की सरहदें ।
चिटख़ा देती हैं कभी अपने वजूद को
अपनी ही चीत्कारों और सिसकियों से
तोड़ देतीं हैं उन सारे पैमानों व बोतलों को
जिस में उतारी गई हैं वह बड़ी महारत से
दीवानी हो चुकी हैं सब की सब औरतें।
मैं शामिल हूँ या न हूँ,मगर हूँ तो
इस काल-खंड की चश्मदीद गवाह।
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