Chote Chote Ishwar | Madan Kashyap
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छोटे-छोटे ईश्वर | मदन कश्यप
छोटे-छोटे ईश्वर
छोटे-छोटे मंदिरों में रहते हैं
छोटे-छोटे ईश्वर
विशाल ऐतिहासिक मंदिरों की भीतरी चारदीवारियों कोनों-अंतरों में
बने नक्काशीदार आलों ताकों कोटरों में
दुबके बैठे इन ईश्वरों का अपना कोई साम्राज्य नहीं होता
ये तो महान ईश्वरतंत्र के बस छोटे-छोटे पुर्जे होते हैं
किसी-किसी की बड़े ईश्वर से कुछ नाते-रिश्तेदारी भी होती है
और महात्म्य- कथाओं में इस बारे में लिखे होते हैं एक-दो वाक्य
इनके पुजारी इन्हीं जैसे दीन-हीन होते हैं
उनकी न तो फैली हुई तोंद होती है ना ही गालों पर लाली
वे रेशम और साटन के महँगे रंगीन कपड़े नहीं पहनते
बस हैंडलूम की एक मटमैली धोती को बीच से फाड़कर
आधा पहन लेते हैं आधा ओढ़ लेते हैं
उनके त्रिपुंड में भी वह आक्रामक चमक नहीं होती
बड़े ईश्वर के महान मंदिर की परिक्रमा कर रहे लोगों को
पुकार-पुकार कर बुलाता है छोटा पुजारी
अपने ईश्वर का उनसे नाता-रिश्ता बतलाता है
इक्का-दुक्का कोई छिटककर पास आ गया तो
झट से हाथ में जल-अक्षत देकर संकल्प करा देता है
फिर ग्यारह सौ आशीर्वादों के बाद माँगता है ग्यारह रुपये की दक्षिणा
इससे अधिक कुछ माँगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है छोटा पुजारी
वैसे मिलने को सवा रुपया भी मिल जाए तो संतोष कर लेता है
लगभग अप्रचलित हो चुकी छोटी रेजगारियाँ
इन छोटे ईश्वरों पर ही चढ़ती हैं
एक बहुत ही छोटी और अविश्वसनीय कमाई पर पलते हैं
इन छोटे-छोटे पुजारियों के कुनबे
कई बार तो ऐसे गिड़गिड़ाता है छोटा पुजारी
कि पता नहीं चलता दक्षिणा माँग रहा है या भीख
सबसे छोटे और दयनीय होते हैं
उजाड़ में नंगी पहाड़ियों पर या मलिन बस्तियों के निकट
ढहते-ढनमनाते मंदिरों के वे ईश्वर
जिनके होने की कोई कथा नहीं होती
उनके तो पुजारी तक नहीं होते
रोटी की तलाश में किसी शहर को भाग चुका होता है
पुजारी का कुनबा
अपने ईश्वर को अकेला असहाय छोड़कर
अपनी देह की धूल तक झाड़ नहीं पाता है अकेला ईश्वर
वह तो भूलने लगता है अपना वजूद
तभी छठे-छमाहे आ जाता है कोई राहगीर
कुएँ के जल से धोता है उसकी देह
मंदिर की सफाई करके जलाता है दीया
इस तरह ईश्वर को उसके होने का एहसास कराता है
तब ईश्वर को लगता है कि ईश्वर की कृपा से यह सब हुआ
कभी-कभी तो शहरों के भीड़-भाड़ वाले व्यस्त चौराहों पर
अट्टालिकाओं में दुबके मंदिरनुमा ढाँचों में
सिमटकर बैठा होता है कोई छोटा सा ईश्वर
धूल और धुएँ में डूबा भूखा-प्यासा
आने-जाने वालों को कई बार पता भी नहीं चलता
कि जहाँ वे जाम में फँसे कसमसा रहे होते हैं
वहीं उनके बाजू में धुएँ से जलती आँखें मींचे
बैठा है कोई ईश्वर
कई-कई दिनों तक अगरबत्तियाँ भी नहीं जलतीं
कालकोठरी से भी छोटे उसके कक्ष में
कि अचानक किसी स्त्री को उसकी याद आती है
और वह एक लोटा जल उसके माथे पर उलीच आती है
छोटे ईश्वर की छोटी-छोटी ज़रूरतें भी
ठीक से पूरी नहीं हो पाती हैं
छोटी-छोटी मजबूरियाँ एक दिन इतना विकराल रूप ले लेती हैं
कि वह एकदम लाचार हो जाता है
तब किसी छोटे पुजारी के सपने में आता है
और कहता है :
आदमी हो या ईश्वर
छोटों की हालत कहीं भी अच्छी नहीं है!
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