Bhatka Hua Akelapan | Kailash Vajpeyi
Manage episode 377418852 series 3463571
भटका हुआ अकेलापन - कैलाश वाजपेयी
यह अधनंगी शाम और
यह भटका हुआ
अकेलापन
मैंने फिर घबराकर अपना शीशा तोड़ दिया।
राजमार्ग—कोलाहल—पहिए
काँटेदार रंग गहरे
यंत्र-सभ्यता चूस-चूसकर
फेंके गए अस्त चेहरे
झाग उगलती खुली खिड़कियाँ
सड़े गीत सँकरे ज़ीने
किसी एक कमरे में मुझको
बंद कर लिया फिर मैंने
यह अधनंगी शाम और
यह चुभता हुआ
अकेलापन
मैंने फिर घबराकर अपना शीशा तोड़ दिया।
झरती भाँप, खाँसता बिस्तर, चिथड़ा साँसें
उबकाई
धक्के देकर मुझे ज़िंदगी आख़िर कहाँ
गिरा आई
टेढ़ी दीवारों पर चलते
मुरदा सपनों के साए
जैसे कोई हत्यागृह में
रह-रहकर लोरी गाए
यह अधनंगी शाम और
यह टूटा हुआ
अकेलापन
मैंने फिर उकताकर कोई पन्ना मोड़ दिया।
आई याद—खौलते जल में
जैसे बच्चा छूट गिरे।
जैसे जलते हुए मरुस्थल में तितली का पंख झरे।
चिटख़ गया आकाश
देह टुकड़े-टुकड़े हो बिखर गई
क्षण-भर में सौ बार घूमकर धरती जैसे
ठहर गई
यह अधनंगी शाम और
यह हारा हुआ
अकेलापन
मैंने फिर मणि देकर पाला विषधर छोड़ दिया।
654 एपिसोडस