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Achha Tha Agar Zakhm Na Bharte Koi Din Aur | Faraz

2:55
 
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Manage episode 448085707 series 3463571
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अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और | फ़राज़

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और

उस कू-ए-मलामत में गुज़रते कोई दिन और

रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते

आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा

ए काश तेरे बाद गुज़रते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को

तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और

गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी

मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे

ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

कू-ए-मलामत - ऐसी गली जहाँ व्यंग्य किया जाता हो

खुर्शीद - सूर्य
रंज - तकलीफ़, ग़मतलब- दुख पसन्द करने वाले

तर्के-तअल्लुक - रिश्ता टूटना( यहाँ संवाद हीनता से मतलब है)

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अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और

उस कू-ए-मलामत में गुज़रते कोई दिन और

रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते

आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा

ए काश तेरे बाद गुज़रते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को

तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और

गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी

मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे

ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

कू-ए-मलामत - ऐसी गली जहाँ व्यंग्य किया जाता हो

खुर्शीद - सूर्य
रंज - तकलीफ़, ग़मतलब- दुख पसन्द करने वाले

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