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Doosre Log | Manglesh Dabral

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दूसरे लोग | मंगलेश डबराल

दूसरे लोग भी पेड़ों और बादलों से प्यार करते हैं

वे भी चाहते हैं कि रात में फूल न तोड़े जाएँ

उन्हें भी नहाना पसन्द है एक नदी उन्हें सुन्दर लगती है

दूसरे लोग भी मानवीय साँचों में ढले हैं

थके-मांदे वे शाम को घर लौटना चाहते हैं।

जो तुम्हारी तरह नहीं रहते वे भी रहते हैं यहाँ अपनी तरह से

यह प्राचीन नगर जिसकी महिमा का तुम बखान करते हो

सिर्फ़ धूल और पत्थरों का पर्दा है

और भूरी पपड़ी की तरह दिखता यह सिंहासन

जिस पर बैठकर न्याय किए गए

इसी के नीचे यहाँ हुए अन्याय भी दबे हैं

सभ्यता का गुणगान करनेवालो

तुम अगर सध्य नहीं हो

तो तुम्हारी सभ्यता का क़द तुमसे बड़ा नहीं है।

एक लम्बी शर्म से ज़्यादा कुछ नहीं है इतिहास

आग लगानेवालो

इससे दूसरों के घर मत जलाओ

आग मनुष्य की सबसे पुरानी अच्छाई है

यह आत्मा में निवास करती है और हमारा भोजन पकाती है

अत्याचारियो

तुम्हें अत्याचार करते हुए बहुत दिन हो गए

जगह-जगह पोस्टरों अख़बारों में छपे तुम्हारे चेहरे कितने विकृत हैं

तुम्हारे मुख से निकल रहा है झाग

आर तुम जो कुछ कहते हो उससे लगता है

अभी नष्ट होनेवाला है बचाखुचा हमारा संसार।

  continue reading

702 एपिसोडस

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दूसरे लोग भी पेड़ों और बादलों से प्यार करते हैं

वे भी चाहते हैं कि रात में फूल न तोड़े जाएँ

उन्हें भी नहाना पसन्द है एक नदी उन्हें सुन्दर लगती है

दूसरे लोग भी मानवीय साँचों में ढले हैं

थके-मांदे वे शाम को घर लौटना चाहते हैं।

जो तुम्हारी तरह नहीं रहते वे भी रहते हैं यहाँ अपनी तरह से

यह प्राचीन नगर जिसकी महिमा का तुम बखान करते हो

सिर्फ़ धूल और पत्थरों का पर्दा है

और भूरी पपड़ी की तरह दिखता यह सिंहासन

जिस पर बैठकर न्याय किए गए

इसी के नीचे यहाँ हुए अन्याय भी दबे हैं

सभ्यता का गुणगान करनेवालो

तुम अगर सध्य नहीं हो

तो तुम्हारी सभ्यता का क़द तुमसे बड़ा नहीं है।

एक लम्बी शर्म से ज़्यादा कुछ नहीं है इतिहास

आग लगानेवालो

इससे दूसरों के घर मत जलाओ

आग मनुष्य की सबसे पुरानी अच्छाई है

यह आत्मा में निवास करती है और हमारा भोजन पकाती है

अत्याचारियो

तुम्हें अत्याचार करते हुए बहुत दिन हो गए

जगह-जगह पोस्टरों अख़बारों में छपे तुम्हारे चेहरे कितने विकृत हैं

तुम्हारे मुख से निकल रहा है झाग

आर तुम जो कुछ कहते हो उससे लगता है

अभी नष्ट होनेवाला है बचाखुचा हमारा संसार।

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सिलबट्टा | प्रशांत बेबार वो पीसती है दिन रात लगातार मसाले सिलबट्टे पर तेज़ तीखे मसाले अक्सर जलने वाले पीसकर दाँती तानकर भौहें वो पीसती है हरी-हरी नरम पत्तियाँ और गहरे काले लम्हे सिलेटी से चुभने वाले किस्से वो पीसती हैं मीठे काजू, भीगे बादाम और पीस देना चाहती है सभी कड़वी भददी बेस्वाद बातें लगाकर आलती-पालती लिटाकर सिल, उठाकर सिरहाना उसका दोनों हथेलियों में फँसाकर बट्टा सीने में सास भरकर नथुने फुलाकर पसीने से लथपथ पीस देना चाहती है बार-बार सरकता घूँघट चिल्लाहट, छटपटाहट अपनी और उनकी, जिनके निशान हैं बट्टे पर और उनकी भी, जिनके निशान नहीं चाहती बट्टे पर वो पीसती है दिन रात खुद को लगातार मिलाकर देह का चूरा पोटुओं से नमक में यूँ बनाती है लज़ीज़ सब कुछ वो पीसते-पीसते सिलबट्टे पे उम्र अपनी गढ़ती है तमाम मीठे ठंडे सपने और रख देती है बेटी के नन्हे होठों के पोरों पर चुपचाप सिलबट्टे से दूर, सिलबट्टे से बहुत दूर।…
 
अड़ियल साँस | केदारनाथ सिंह पृथ्वी बुख़ार में जल रही थी और इस महान पृथ्वी के एक छोटे-से सिरे पर एक छोटी-सी कोठरी में लेटी थी वह और उसकी साँस अब भी चल रही थी और साँस जब तक चलती है झूठ सच पृथ्वी तारे - सब चलते रहते हैं डॉक्टर वापस जा चुका था और हालाँकि वह वापस जा चुका था पर अब भी सब को उम्मीद थी कि कहीं कुछ है। जो बचा रह गया है नष्ट होने से जो बचा रह जाता है लोग उसी को कहते हैं जीवन कई बार उसी को काई घास या पत्थर भी कह देते हैं लोग लोग जो भी कहते हैं उसमें कुछ न कुछ जीवन हमेशा होता है। तो यह वही चीज़ थी यानी कि जीवन जिसे तड़पता हुआ छोड़कर चला गया था डॉक्टर और वह अब भी थी और साँस ले रही थी उसी तरह उसकी हर साँस हथौड़े की तरह गिर रही थी सारे सन्नाटे पर ठक-ठक बज रहा था सन्नाटा जिससे हिल उठता था दिया जो रखा था उसके सिरहाने किसी ने उसकी देह छुई कहा - 'अभी गर्म है'। लेकिन असल में देह या कि दिया कहाँ से आ रही थी जीने की आँच यह जाँचने का कोई उपाय नहीं था क्योंकि डॉक्टर जा चुका था और अब खाली चारपाई पर सिर्फ़ एक लंबी और अकेली साँस थी जो उठ रही थी गिर रही थी गिर रही थी उठ रही थी.. इस तरह अड़ियल साँस को मैंने पहली बार देखा मृत्यु से खेलते और पंजा लड़ाते हुए तुच्छ असह्य गरिमामय साँस को मैंने पहली बार देखा इतने पास से…
 
ऐ औरत! | नासिरा शर्मा जाड़े की इस बदली भरी शाम को कहाँ जा रही हो पीठ दिखाते हुए ठहरो तो ज़रा! मुखड़ा तो देखूँ कि उस पर कितनी सिलवटें हैं थकन और भूख-प्यास की सर पर उठाए यह सूखी लकड़ियों का गट्ठर कहाँ लेकर जा रही हो इसे? तुम्हें नहीं पता है कि लकड़ी जलाना, धुआँ फैलाना, वायु को दूषित करना अपराध है अपराध! गैस है, तेल है ,क्यों नहीं करतीं इस्तेमाल उसे तुम्हारी ग़रीबी, बेचारगी और बेकारी के दुखड़ों से कुछ नहीं लेना देना है क़ानून को बस इतना कहना है कि जाड़े की ठिठुरी रात में,गरमाई लेते हुए रोटी सेंकने की ग़लती मत कर बैठना पेड़ कुछ कहें या न कहें तुम्हें मगर इस अपराध पर, क़ानून पकड़ लेगा तुम्हें यह दो हज़ार चौबीस है बदलते समय के साथ चलो , और पुराने रिश्तों से नाता तोड़ो सवाल मत करो कि बमों से निकलते बारूद धूल, धुएँ से पर्यावरण का नाश नहीं होता पेड़ों के कटने से गर्मी का क़हर नहीं टूटता यह छोटे मुँह और बड़ी बात होगी।…
 
हार | प्रभात जब-जब भी मैं हारता हूँ मुझे स्त्रियों की याद आती है और ताक़त मिलती है वे सदा हारी हुई परिस्थिति में ही काम करती हैं उनमें एक धुन एक लय एक मुक्ति मुझे नज़र आती है वे काम के बदले नाम से गहराई तक मुक्त दिखलाई पड़ती हैं असल में वे निचुड़ने की हद तक थक जाने के बाद भी इसी कारण से हँस पाती हैं कि वे हारी हुई हैं विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें ऐतिहासिक विजय हासिल है…
 
ग़ुस्सा | गुलज़ार बूँद बराबर बौना-सा भन्नाकर लपका पैर के अँगूठे से उछला टख़नों से घुटनों पर आया पेट पे कूदा नाक पकड़ कर फन फैला कर सर पे चढ़ गया ग़ुस्सा!
 
मरीज़ का नाम- उस्मान ख़ान चाहता हूँ किसी शाम तुम्हें गले लगाकर ख़ूब रोना लेकिन मेरे सपनों में भी वो दिन नहीं ढलता जिसके आख़री सिरे पर तुमसे गले मिलने की शाम रखी है सुनता हूँ कि एक नए कवि को भी तुमसे इश्क़ है मैं उससे इश्क़ करने लगा हूँ मेरे सारे दुःस्वप्नों के बयान तुम्हारे पास हैं और तुम्हारे सारे आत्मालाप मैंने टेप किए हैं मैं साइक्रेटिस्ट की तरफ़ देखता हूँ वो तुम्हारी तरफ़ और तुम मेरी तरफ़ और हम तीनों भूल जाते हैं—मरीज़ का नाम!…
 
बनाया है मैंने ये घर | रामदरश मिश्र बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला कटा ज़िन्दगी का सफर धीरे-धीरे जहाँ आप पहुँचे छलॉंगें लगा कर वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी उठाता गया यों ही सर धीरे-धीरे गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे न हँस कर, न रोकर किसी में उड़ेला पिया ख़ुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी मुहब्बत मिली है अगर धीरे-धीरे…
 
अपने आप से | ज़ाहिद डार मैं ने लोगों से भला क्या सीखा यही अल्फ़ाज़ में झूटी सच्ची बात से बात मिलाना दिल की बे-यक़ीनी को छुपाना सर को हर ग़बी कुंद-ज़ेहन शख़्स की ख़िदमत में झुकाना हँसना मुस्कुराते हुए कहना साहब ज़िंदगी करने का फ़न आप से बेहतर तो यहाँ कोई नहीं जानता है गुफ़्तुगू कितनी भी मजहूल हो माथा हमवार कान बेदार रहें आँखें निहायत गहरी सोच में डूबी हुई फ़लसफ़ी ऐसे किताबी या ज़बानी मानो उस से पहले कभी इंसान ने देखे ने सुने उन को बतला दो यही बात वगर्ना इक दिन और वो दिन भी बहुत दूर नहीं तुम नहीं आओगे ये लोग कहेंगे जाहिल बात करने का सलीक़ा ही नहीं जानता है क्या तुम्हें ख़ौफ़ नहीं आता है ख़ौफ़ आता है कि लोगों की नज़र से गिर कर हाज़रा दौर में इक शख़्स जिए तो कैसे शहर में लाखों की आबादी में एक भी ऐसा नहीं जिस का ईमान किसी ऐसे वजूद ऐसी हस्ती या हक़ीक़त या हिकायत पर हो जिस तक हाज़रा दौर के जिब्रईल की (या'नी अख़बार) दस्तरस न हो रसाई न हो मैं ने लोगों से भला क्या सीखा बुज़दिली और जहालत की फ़ज़ा में जीना दाइमी ख़ौफ़ में रहना कहना सब बराबर हैं हुजूम जिस तरफ़ जाए वही रस्ता है मैं ने लोगों से भला क्या सीखा बे यक़ीनी- अविश्वास ग़बी- मंदबुद्धि कुंद ज़ह्न- मूर्ख ख़िदमत- सेवा गुफ़्तगू: बात चीत मजहूल- मूर्खता से भरी हुई हमवार: एक सा बेदार: जागता हुआ फ़ल्सफ़ी दार्शनिक हाज़रा: वर्तमान हस्ती: अस्तित्व हिकायत: कहानी जिब्रईल: मान्यता के अनुसार ख़ुदा का एक फ़रिश्ता दस्तरस: पहुँच रसाई: पहुँच दाइमी: शाश्वत हुजूम: भीड़…
 
मेरा घर, उसका घर / आग्नेय एक चिड़िया प्रतिदिन मेरे घर आती है जानता नहीं हूँ उसका नाम सिर्फ़ पहचानता हूँ उसको वह चहचहाती है देर तक ढूँढती है दाने : और फिर उड़ जाती है अपने घर की ओर पर उसका घर कहाँ है? घर है भी उसका या नहीं है उसका घर? यदि उसका घर है तब भी उसका घर मेरे घर जैसा नहीं होगा लहूलुहान और हाहाकार से भरा फिर क्यों आती है वह मेरे घर प्रतिदिन चहचहाने…
 
रचना की आधी रात | केदारनाथ सिंह अन्धकार! अन्धकार! अन्धकार आती है कानों में फिर भी कुछ आवाज़ें दूर बहुत दूर कहीं आहत सन्नाटे में रह- रहकर ईटों पर ईटों के रखने की फलों के पकने की ख़बरों के छपने की सोए शहतूतों पर रेशम के कीड़ों के जगने की बुनने की. और मुझे लगता है जुड़ा हुआ इन सारी नींदहीन ध्वनियों से खोए इतिहासों के अनगिनत ध्रुवांतों पर मैं भी रचना- रत हूँ झुका हुआ घंटों से इस कोरे काग़ज़ की भट्ठी पर लगातार अन्धकार! अन्धकार ! अन्धकार !…
 
धरती की बहनें | अनुपम सिंह मैं बालों में फूल खोंस धरती की बहन बनी फिरती हूँ मैंने एक गेंद अपने छोटे भाई आसमान की तरफ़ उछाल दी है। हम तीनों की माँ नदी है बाप का पता नहीं मेरा पड़ोसी ग्रह बदल गया है। कोई और आया है किरायेदार बनकर अब से मेरी सारी डाक उसी के पते पर आएगी मैंने स्वर्ग से बुला लिया है अप्सराओं को वे इन्द्र से छुटकारा पा ख़ुश हैं। आज रात हम सब सखियाँ साथ सोएँगी विष्णु की मोहिनी चाहे तो अपनी मदिरा लेकर इधर रुक सकती है……
 
पहली पेंशन /अनामिका श्रीमती कार्लेकर अपनी पहली पेंशन लेकर जब घर लौटीं– सारी निलम्बित इच्छाएँ अपना दावा पेश करने लगीं। जहाँ जो भी टोकरी उठाई उसके नीचे छोटी चुहियों-सी दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएँ! श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं क्या-क्या ख़रीदें, किससे कैसे निपटें ! सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाईं झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर चूहेदानी में इच्छाएँ फँसाईं (हुलर-मुलर सारी इच्छाएँ) और कहा कार्लेकर साहब से– “चलो ज़रा, गंगा नहा आएँ!”…
 
इस तरह रहना चाहूँगा | शहंशाह आलम इस तरह रहना चाहूँगा भाषा में जिस तरह शहद मुँह में रहता है रहूँगा किताब में मोरपंख की तरह रहूँगा पेड़ में पानी में धूप में धान में हालत ख़राब है जिस आदमी की बेहद उसी के घर रहूँगा उसके चूल्हे को सुलगाता जिस तरह रहता हूँ डगमग चल रही बच्ची के नज़दीक हमेशा उसको सँभालता इस तरह रहूँगा तुम्हारे निकट जिस तरह पिता रहते आए हैं हर कठिन दिनों में मेरे साथ हाथ में अपना पुराना छाता लिए।…
 
ये लोग | नरेश सक्सेना तूफान आया था कुछ पेड़ों के पत्ते टूट गए हैं कुछ की डालें और कुछ तो जड़ से ही उखड़ गए हैं इनमें से सिर्फ़ कुछ ही भाग्यशाली ऐसे बचे जिनका यह तूफान कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया ये लोग ठूँठ थे।
 
क्या भूलूं क्या याद करूं मैं | हरिवंश राय बच्चन अगणित उन्मादों के क्षण हैं, अगणित अवसादों के क्षण हैं, रजनी की सूनी की घड़ियों को किन-किन से आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! याद सुखों की आसूं लाती, दुख की, दिल भारी कर जाती, दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! दोनों करके पछताता हूं, सोच नहीं, पर मैं पाता हूं, सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!…
 
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