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Laut Ke Wapas Aana | Shrey Karkhur

4:12
 
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लौट के वापस आना | श्रेय कारखुर

मेरी भाषा के एक बुजुर्ग कवि ने कहा है

कि घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता

जितना लौट के वापस आने के लिए होता है

मैंने हमेशा इन पंक्तियों को भरा हुआ पाया है

बहुत सी उम्मीद और ढेर सारे इंतज़ार से

लौट के वापस आने में इंतज़ार भर की दूरी होती है

जिसे तय करती है पहाड़ों से लौटती गूंज

इस उम्मीद में,

कि कोई उसके लौटने का इंतजार कर रहा है

जैसे कवि करता है इंतज़ार, कविता के लौटने का

मैं कविता की तरह

साँस के लौटने का इंतज़ार नहीं करता

मैं अपनी देह को उसका घर समझता हूँ

समझता हूँ कि वह मेरे देह की बासी है

जहाँ उसे ज़िन्दा रहने तक लौटना होगा

उसके मरने के बाद उसके घर का क्या होगा

मैं नहीं जानता, पर मैं जानता हूँ,

कि न-जाने ऐसे कितने घर होंगे

जहाँ के बासी नहीं चढ़े थे

मरने की उम्र तक कोई सीढ़ी

और फिर भी कभी लौट के वापस नहीं आए

मकानों की भीड़ में

यह कुछ घर आज भी पड़े हैं खाली

जो खाली पड़े घोंसलों की तरह

हर शाम करते है उनका इंतज़ार

जिनके नामों की तख्ती

आज भी लटक रही है उन दरवाजों पर

जहाँ से हर शाम दिलासा देकर

अपने घर को लौटती हैं हवाएँ

और जिन्हें खाली पाकर वहाँ नहीं लौटता

थोड़ा बसंत,

आधा सावन

और पूर्णिमा का पूरा चाँद

मैं आदतन अपने घर से निकलता हूँ

राह चलते ऐसे ही किसी घर को

देखता हूँ, ठिठकता हूँ

और सोचता हूँ

क्या यह घर उन बच्चों के हो सकते हैं?

जो अपने झुंड से बिछड़े बछड़े की तरह

भटक रहे हैं मेरे मोहल्ले की गलियों में

जिन्हें मैंने कई-कई बार देखा है

भीड़ भरे बाजारों में, शहर के चौराहों पर

और उन मंदिरों के चबूतरों पर

जहाँ उनकी माएं उन्हें जनकर छोड़ गईं

जहाँ मैं उन्हें भीख के अलावा और कुछ नहीं दे सका

क्या यह घर उन औरतों के हो सकते हैं?

जो अपने पीहर से

नहीं ला सकीं सौदे बराबर पैसा,

जिन्हें नहीं समझा गया लायक़

समाज के किसी दर्जे के,

या जो कभी एक लड़की हुआ करती थीं

कच्चेपन में अपने घर से निकली हुईं

और पाई गईं उन दड़बों में

जहाँ से लौटने का रास्ता उन्हें भूल जाना पड़ा

क्या यह घर उन आदमियों के हो सकते हैं?

जो बंजारों की तरह

किसी के दुत्कारे जाने तक

बसते हैं गलियों के कोनों में

और दुत्कारे जाते ही

उन कोनों से कूच कर जाते हैं

और लिए जाते हैं

अपने हिस्से की तमाम संपत्ति

न जाने किस गली के

किस कोने में बसने को

मैं आदतन अपने घर को लौटता हूँ

और गली के पीपल तले रखी

मूर्तियों को देखता हूँ, ठिठकता हूँ

और सोचता हूँ,

क्या उन बच्चों, औरतों और आदमियों

की ही तरह ईश्वर का भी घर होगा?

क्या सबकी देखा-देखी

निकल आया है ईश्वर भी अपने घर से

और पड़ा हुआ है इस पीपल तले

किसी खंडित मूर्ति की तरह?

यदि मैं उस कवि को

ईश्वर की जगह रखकर देखूँ

तो घर का संदर्भ संसार से होता

जहाँ यह शहर, यहाँ की

गलियां, कोने, बाज़ार, मोहल्ले

मंदिर और चौराहे

सभी होते एक ही घर के हिस्से, जहाँ

इन बच्चों, औरतों और आदमियों

कि ही तरह ईश्वर का भी एक कमरा होता

जहाँ वह परिवार के बुजुर्ग की तरह रहता

और किसी को बाहर जाता देख

हर बार टोककर कहता

कि संसार बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता

जितना लौट के वापस आने के लिए होता है

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मेरी भाषा के एक बुजुर्ग कवि ने कहा है

कि घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता

जितना लौट के वापस आने के लिए होता है

मैंने हमेशा इन पंक्तियों को भरा हुआ पाया है

बहुत सी उम्मीद और ढेर सारे इंतज़ार से

लौट के वापस आने में इंतज़ार भर की दूरी होती है

जिसे तय करती है पहाड़ों से लौटती गूंज

इस उम्मीद में,

कि कोई उसके लौटने का इंतजार कर रहा है

जैसे कवि करता है इंतज़ार, कविता के लौटने का

मैं कविता की तरह

साँस के लौटने का इंतज़ार नहीं करता

मैं अपनी देह को उसका घर समझता हूँ

समझता हूँ कि वह मेरे देह की बासी है

जहाँ उसे ज़िन्दा रहने तक लौटना होगा

उसके मरने के बाद उसके घर का क्या होगा

मैं नहीं जानता, पर मैं जानता हूँ,

कि न-जाने ऐसे कितने घर होंगे

जहाँ के बासी नहीं चढ़े थे

मरने की उम्र तक कोई सीढ़ी

और फिर भी कभी लौट के वापस नहीं आए

मकानों की भीड़ में

यह कुछ घर आज भी पड़े हैं खाली

जो खाली पड़े घोंसलों की तरह

हर शाम करते है उनका इंतज़ार

जिनके नामों की तख्ती

आज भी लटक रही है उन दरवाजों पर

जहाँ से हर शाम दिलासा देकर

अपने घर को लौटती हैं हवाएँ

और जिन्हें खाली पाकर वहाँ नहीं लौटता

थोड़ा बसंत,

आधा सावन

और पूर्णिमा का पूरा चाँद

मैं आदतन अपने घर से निकलता हूँ

राह चलते ऐसे ही किसी घर को

देखता हूँ, ठिठकता हूँ

और सोचता हूँ

क्या यह घर उन बच्चों के हो सकते हैं?

जो अपने झुंड से बिछड़े बछड़े की तरह

भटक रहे हैं मेरे मोहल्ले की गलियों में

जिन्हें मैंने कई-कई बार देखा है

भीड़ भरे बाजारों में, शहर के चौराहों पर

और उन मंदिरों के चबूतरों पर

जहाँ उनकी माएं उन्हें जनकर छोड़ गईं

जहाँ मैं उन्हें भीख के अलावा और कुछ नहीं दे सका

क्या यह घर उन औरतों के हो सकते हैं?

जो अपने पीहर से

नहीं ला सकीं सौदे बराबर पैसा,

जिन्हें नहीं समझा गया लायक़

समाज के किसी दर्जे के,

या जो कभी एक लड़की हुआ करती थीं

कच्चेपन में अपने घर से निकली हुईं

और पाई गईं उन दड़बों में

जहाँ से लौटने का रास्ता उन्हें भूल जाना पड़ा

क्या यह घर उन आदमियों के हो सकते हैं?

जो बंजारों की तरह

किसी के दुत्कारे जाने तक

बसते हैं गलियों के कोनों में

और दुत्कारे जाते ही

उन कोनों से कूच कर जाते हैं

और लिए जाते हैं

अपने हिस्से की तमाम संपत्ति

न जाने किस गली के

किस कोने में बसने को

मैं आदतन अपने घर को लौटता हूँ

और गली के पीपल तले रखी

मूर्तियों को देखता हूँ, ठिठकता हूँ

और सोचता हूँ,

क्या उन बच्चों, औरतों और आदमियों

की ही तरह ईश्वर का भी घर होगा?

क्या सबकी देखा-देखी

निकल आया है ईश्वर भी अपने घर से

और पड़ा हुआ है इस पीपल तले

किसी खंडित मूर्ति की तरह?

यदि मैं उस कवि को

ईश्वर की जगह रखकर देखूँ

तो घर का संदर्भ संसार से होता

जहाँ यह शहर, यहाँ की

गलियां, कोने, बाज़ार, मोहल्ले

मंदिर और चौराहे

सभी होते एक ही घर के हिस्से, जहाँ

इन बच्चों, औरतों और आदमियों

कि ही तरह ईश्वर का भी एक कमरा होता

जहाँ वह परिवार के बुजुर्ग की तरह रहता

और किसी को बाहर जाता देख

हर बार टोककर कहता

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