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Todti Pathar | Suryakant Tripathi 'Nirala'

2:27
 
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तोड़ती पत्थर | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

वह तोड़ती पत्थर;

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बँधा यौवन,

नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार :-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू,

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गईं,

प्राय: हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा—

‘मैं तोड़ती पत्थर।’

  continue reading

481 एपिसोडस

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वह तोड़ती पत्थर;

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बँधा यौवन,

नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार :-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू,

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गईं,

प्राय: हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा—

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