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“That's taxpayer’s money that is going to support research and development and pilot projects to develop a food system that is based on environmental destruction and greed and disregard for animals, fish, and any of the other marine mammals that might be around it.” - Andrianna Natsoulas Andrianna Natsoulas is the campaign director for Don't Cage Our Oceans, an organization that exists to keep our oceans free from industrial fish farms. Offshore finfish farming is the mass cultivation of finfish in marine waters, in underwater or floating net pens, pods, and cages. Offshore finfish farms are factory farms that harm public health, the environment, and local communities and economies that rely on the ocean and its resources. Don’t Cage Our Oceans are a coalition of diverse organizations working together to stop the development of offshore finfish farming in the United States through federal law, policies, and coalition building. And, although it is not yet happening, right now the US Administration and Congress are promoting this kind of farming, which would be nothing short of disastrous for the oceans, the planet and the people and animals who live here. dontcageouroceans.org…
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"नीचे के कपड़े" अमृता प्रीतम की दस प्रतिनिधि कहानियों में शुमार है।ये कहानी मन और बदन ,पूरे और अधूरे, उजागर और छिपे रिश्तों को बयां करती है। खानाबदोश औरतों की रवायत है कि वे अपनी कमर पर पड़ी नेफे की लकीर पर उसका नाम गुदवाती हैं जिस से वे मोहब्बत करती हैं। सिवाय ईश्वर की आंख के कोई भी किसी औरत का कमर से नीचे का बदन नहीं देख सकता। इस कहानी के पात्र अक्षय को घर के स्टोर में पड़े पुराने खतों के ज़रिए पारिवारिक रिश्तों की उलझी हुई सच्चाई का पता चलता है । जहां उसके पिता का संबंध किसी मिसेज़ चोपड़ा से है,और स्वयं अक्षय अपनी माँ और चाचा के बीच पनपे संबंध की परिणति है। माँ को संदेह है कि चाचा का संबंध मिस नंदा से है।पुराने खतों से उघड़े राज़ जान कर अक्षय को महसूस होता है कि उसे ईश्वर की आंख मिल गयी है और उसने कपड़ों के नीचे सब के नेफे की लकीर को देख लिया है।
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"नीचे के कपड़े" अमृता प्रीतम की दस प्रतिनिधि कहानियों में शुमार है।ये कहानी मन और बदन ,पूरे और अधूरे, उजागर और छिपे रिश्तों को बयां करती है। खानाबदोश औरतों की रवायत है कि वे अपनी कमर पर पड़ी नेफे की लकीर पर उसका नाम गुदवाती हैं जिस से वे मोहब्बत करती हैं। सिवाय ईश्वर की आंख के कोई भी किसी औरत का कमर से नीचे का बदन नहीं देख सकता। इस कहानी के पात्र अक्षय को घर के स्टोर में पड़े पुराने खतों के ज़रिए पारिवारिक रिश्तों की उलझी हुई सच्चाई का पता चलता है । जहां उसके पिता का संबंध किसी मिसेज़ चोपड़ा से है,और स्वयं अक्षय अपनी माँ और चाचा के बीच पनपे संबंध की परिणति है। माँ को संदेह है कि चाचा का संबंध मिस नंदा से है।पुराने खतों से उघड़े राज़ जान कर अक्षय को महसूस होता है कि उसे ईश्वर की आंख मिल गयी है और उसने कपड़ों के नीचे सब के नेफे की लकीर को देख लिया है।
एक उड़ता हुआ कबूतर आया और उसने मेरी गोद में शरण ली। देख उसके पीछे एक बाज भी था,और वह मुझसे कबूतर को मांग रहा था। बाज ने कहा ,'अगर कबूतर नहीं देती तो अपने बदन का मांस तोल कर दे दे।' मेरी सारी रचनाएँ ,क्या कविता और क्या कहानी और क्या उपन्यास ,मैं जानती हूँ ,एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं मेरी दुनिया की हक़ीक़त ने मेरे मन के सपने से इश्क़ किया और उनके वर्जित मेल से ये सब रचनाएँ पैदा हुईं कुमार जब अलका को बताता है की वह शरीर की भूख मिटाने के लिए कुछ दिन एक ऐसी औरत के पास जाता रहा है ,जो रोज़ के २० रुपये लेती थी ,और जब अलका कहती है। ......…
एक कटोरी धूप को मैं एक घूँट में ही पी लूँ और एक टुकड़ा धूप का मैं अपनी कोख में रख लूँ ..... और सूरज से धारण किए गर्भ में से सूरज के पैदा होने तक यह ज़िक्र पहुंचा ..... कोठरी दर कोठरी मैं रोज़ सूरज को जन्म देती ......... ------रसीदी टिकट पृष्ठ संख्या १०८
'ओन' सूरज का एक नाम था ,इसी लिए फ़िनिशियन्स ने जब यूरोप में एक नयी धरती की खोज की ,उसका नाम ऐल -ओन-डोन रखा ,जो आज लन्दन हैं। इंग्लैंड की जड़ें हिब्रू भाषा में हैं। बैल के लिए हिब्रू भाषा में 'ऐंगल' शब्द हैं। नई खोजी हुई धरती को उन्होंने ऐंगल-लैंड का नाम दिया ,जो आज इंग्लैंड है। नींद के होठों से जैसे सपने की महक आती है पहली किरण रात के माथे पर तिलक लगती है हसरत के धागे जोड़ कर शालू-सा हम बुनते रहे विरह की हिचकी में भी हम शहनाई को सुनते रहे ----अमृता प्रीतम…
1975 में मेरे उपन्यास "सागर और सीपियाँ के आधार पर जब 'कादम्बरी' फिल्म बन रही थी तो उसके डायरेक्टर ने मुझसे फिल्म का गीत लिखने के लिए कहा। ... जब मैं गीत लिखने लगी तो अचानक वह गीत सामने आ गया ,जो मैंने 1960 में इमरोज़ से पहली बार मिलने पर अपने मन की दशा के बारे में लिखा था। ..... तब मुझे लगा जैसे चेतना के रूप में मैं पन्द्रह बरस पहले की वह घड़ी फिर से जी रही हूँ अम्बर की इक पाक सुराही ,बादल का एक जाम उठाकर घूँट चांदनी पी है हमने ,बात कुफ़्र की,की है हमने कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएँ ,मांग के अपनी मौत के हाथों यह जो ज़िंदगी ली है हमने ,बात कुफ़्र की, की है हमने अपना इसमें कुछ भी नहीं है ,रोज़े -अज़ल से उसकी अमानत उसको वही तो दी है हमने ,बात कुफ़्र की, की है हमने…
एकाग्र मन हो कर इश्वर से कहा था कि 'मेरी माँ को मत मारो' विश्वास हो गया था कि अब मेरी माँ की मृत्यु नहीं होगी ,क्योंकि ईशवर बच्चों का कहा नहीं टालता ,पर माँ की मृत्यु हो गयी दो औरतें हैं ,जिनमें एक औरत शाहनी है और दूसरी एक वेश्या ,शाह की रखेल............. उस समय मैं भी वहां थी ,जब यह पता चला कि लाहौर की प्रसिद्ध गायिका तमंचा जान वहां आ रही है। वह आई --बड़ी ही छबीली ,नाज़ नखरे से आयी.............. ... तमंचा जान जब गा चुकी ,तब शाहनी ने सौ का नोट निकाल कर उसके आँचल में खैरात की तरह डाल दिया…
मैं जब रोमानिया से बल्गारिया जा रही थी ,रात बहुत ठंडी थी ,पास में अपने कोट के सिवाय कुछ नहीं था ,वही घुटने जोड़ कर ऊपर तान लिया था ,फिर भी जब उसे सर करर और खींचती थी ,तो पैरों में ठिठुरन लगती थी। न जाने कब मुझे नींद आ गयी। लगा ,सारे शरीर में गर्मी आ गयी हैं। बाकी रात खूब गर्माइश में सोती रही ....... नायक को जानती हूँ ,उस दिन से ,जिस दिन उसे साधुओं के एक डेरे में चढ़ाया गया था। बहुत बरसों की बात ,पर अब भी ध्यान आ जाती है ,तो बहुत तराशे हुए नक़्श वाला उसका सांवला चेहरा ,उसकी सारी उदासी के समेत आँखों के सामने आ जाता है…
यह मेरी ज़िन्दगी में पहला समय था, जब मैंने जाना कि दुनिया में मेरा भी कोइ दोस्त है, हर हाल में दोस्त ,और पहली बार जाना कि कविता केवल इश्क़ के तूफ़ान से ही नहीं निकलती ,यह दोस्ती के शांत पानियों में से भी तैरती हुई आ सकती है। उस रात को उसने नज़्म लिखी थी --"मेरे साथी ख़ाली जाम ,तुम आबाद घरों के वासी ,हम हैं आवारा बदनाम "..... और ये नज़्म उसने मुझे रात को कोइ ग्यारह बजे फ़ोन पर सुनाई ,और बताया.....…
.गर्मी हो या सर्दी मैं बहुत से कपडे पहन कर नहीं सो सकती। सो रही थी ,जब यह फोन आया था। उसी तरह रजाई से निकल कर फोन तक आयी थी। लगा ,शरीर का मांस पिघल कर रूह में मिल गया है ,और मैं प्योर नेकेड सोल वहां खड़ी हूँ....... उस रेतीले स्थान पर दो तम्बू लगे हुए थे। मेरी आँखों के सामने तम्बू के अंदर का दृश्य फ़ैल गया। मैं देखता हूँ कि इसमें एक पुरुष है जिसे मैं भली-भांति पहचनता हूँ ,जिसके भाव और विचार एक यंत्र की भांति मेरे अंदर ट्रांसमिट हो जाते हैं। उसके सामने तीन तरह के वस्त्र पहने हुए ,पर एक ही चेहरे की तीन युवतियां खड़ी हुई हैं। पुरुष परेशान हो गया ,क्योंकि उनमें से एक उसकी प्रेमिका थी। ......…
समरकंद में मैंने भी ऐसी ही बात वहां के लोगों से पूछी थी कि आपका इज़्ज़त बेग़ जब हमारे देश आया और उसने एक सुन्दर कुम्हारन से प्रेम किया ,तो हमने में कई गीत लिखे। क्या आपके देश में भी उसके गीत हैं ? तो वहां एक प्यारी सी औरत ने जवाब दिया ,हमारे देश में तो एक अमीर सौदागर का बेटा था ,और कुछ नहीं। प्रेमी तो वह आपके देश जाकर बना ,सो गीत आपको ही लिखने थे ,हम कैसे लिखते .... यूं तो हर देश एक कविता के समान है ,जिसके कुछ अक्षर सुनहरे रंग के हो जाते हैं और उसका मान बन जाते , कुछ लाल सुर्ख हो जारी हैं...…
इथोपिया के प्रिंस का मन छलक उठा "आप कवि लोग भाग्यशाली हैं वास्तविक संसार नहीं बसता तो कल्पना का संसार बसा लेते हैं ,मैं बीस बरस वॉयलान बजाता रहा ,साज़ के तारों से मुझे इश्क़ है ,पर युद्ध के दिनों में मेरे दाहिने हाथ में गोली लग गयी थी ,अब मैं वॉयलान नहीं बजा सकता ,संगीत जैसे मेरी छाती में जम गया है। .... इतिहास चुप है। ..... मैं भी कल से चुप हूँ। ..... संगीत के आशिक़ हाथ को गोलियां क्यों लगती हैं ,इसका उत्तर किसी के पास नहीं है…
टॉलस्टॉय की एक सफ़ेद कमीज़ टंगी हुई है। पलंग की पट्टी पर मैं एक हाथ रखे खड़ी थी कि ....... दाहिने हाथ की खिड़की से हल्की सी हवा आयी ..... और ुउस टंगी हुई कमीज की बांह मेरी बांह से छू गयी ..... एक पल के लिए जैसे समय की सूईयाँ पीछे लौट गयीं , 1966 से 1910 पर आ गयीं और मैंने देखा शरीर पर सफ़ेद कमीज पहन कर वहां दीवार के पास टॉलस्टॉय खड़े हैं। .... फिर लहू की हरकत ने शांत होकर देखा ..... कमरे में कोई नहीं था और बाएं हाथ की दीवार पर केवल एक कमीज टंगी हुई थी -----अमृता प्रीतम ,रसीदी टिकट…
अजीब अकेलेपन का एहसास है। हवाई जहाज़ की खिड़की से बाहर देखते हुए अच्छा लगता है ,जैसे किसी ने आसमान को फाड़कर उसके दो भाग कर दिए हों। प्रतीत होता है -- फटे हुए आसमान का एक भाग मैंने नीचे बिछा लिया है ,और दूसरा अपने ऊपर ओढ़ लिया है सोफ़िया के हवाई अड्डे पर बिलकुल अजनबी सी खड़ी हूँ। अचानक किसी ने लाल फूलों का गुच्छा हाथ में पकड़ा दिया है ,और साथ ही पूछा है ,आप अमृता..... ? और मैं लाल फूलों की उंगली पकड़ अजनबी चेहरों के शहर में चल दी हूँ ...…
हमने आज ये दुनियां बेची .... और दीन खरीद लाये ... बात क़ुफ़्र की ,की है हमने ... सपनों का इक थान बुना था.... गज़ एक कपड़ा फ़ाड़ लिया ... और उम्र की चोली सी ली हमने .... अंबर की इक पाक सुराही ... बादल का इक जाम उठाकर ... घूँट चांदनी पी है हमने ....हमने आज ये दुनिया बेची। ........ मैं औरत थी चाहे बच्ची सी और ये ख़ौफ़ विरासत में पाया था कि दुनिया के भयानक जंगल से मैं अकेली नहीं गुज़र सकती ,और शायद इसी समय में से अपने साथ के लिये मर्द मुहँ की कल्पना करना मेरी कल्पना का अंतिम साधन था.... पर इस मर्द शब्द के मेरे अर्थ कहीं भी पढ़े ,सुने , या पहचाने हुए अर्थ नहीं थे।…
छोटी-छोटी कहानियां, वो कहानियां जो हम पढ़ते है सोशल मीडिया के बड़े बड़े प्लेटफ़ॉर्मस पर, छोटी छोटी कहानियां हमारे जीवन का आईना होती हैं ,इनमें हमारा अक्स दिखता है। छोटी छोटी कहानियां हमें बड़ी बड़ी सीख दी जाती हैं। सुनिये छोटी सी कहानी "खुशियों भरी पासबुक"
एक सपना और था जिसने मेरी उठती जवानी को अपने धागों में लपेट लिया था। हर तीसरी या चौथी रात देखती थी कोइ दो मंज़िला मकान है, वो बिलकुल अकेला ,आसपास कोइ बस्ती नहीं ,चारो ओर जंगल है और जहाँ वो मकान है उसके एक तरफ नदी बहती है...... नदी की ओर उस मकान की दूसरी मंज़िल की एक खिड़की खुलती है। जहाँ कोई खड़ा खिड़की से बाहर जंगल के पेड़ों व नदी को देख रहा है। मुझे सिर्फ़ उसकी पीठ दिखाई देती थी ,और सिर्फ इतना ... की गर्म चादर उसके कन्धों से लिपटी होती थी ...…
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