परिवार का चूल्हा (Pariwar Ka Chulha)
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परिवार का चूल्हा परिवार का चूल्हा, मात्र प्रेम की अग्नि से नहीं चलता, ईंधन भी माँगता है। कर्तव्य की लकड़ियाँ आवश्यक हैं, चूल्हे के जलते रहने के लिए। कभी कभी त्याग का घी-तेल, भी डालना होता है, और व्यवहारिकता की फुँकनी से, समझौते की हवा भी फूँकनी होती है। असुविधाओं का धुँआ सहन करते हुए। Full poem is available for listening Write to me at HindiPoemsByVivek@Gmail.com
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