ग़ज़ल - न सुकून है (Ghazal - Na Sukun Hai)
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न सुकून है न ही चैन है; न ही नींद है न आराम है।
मेरी सुब्ह भी है थकी हुई; मेरी कसमसाती सी शाम है।
न ही मंज़िलें हैं निगाह में; न मक़ाम पड़ते हैं राह में,
ये कदम तो मेरे ही बढ़ रहे; कहीं और मेरी लगाम है।
कि बड़ी बुरी है वो नौकरी; जो ख़ुदी को ख़ुद से ही छीन ले,
यहाँ पिस रहा है वो आदमी; जो बना किसी का ग़ुलाम है।
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शाइर - विवेक अग्रवाल 'अवि'
आवाज़ - नरेश नरूला
96 एपिसोडस