EP2 : " धूमिल " | "Dhumil"
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धूमिल
कैसा लगता है ना , जब कोई चीज तुम सालों से एक जैसी देख रहे थे लेकिन अचानक वो टूटने लगती है , बिखरने लगती है। आजकल कुछ ऐसा ही मेरे पहाड़ो के साथ हो रहा है । वो अपने ही आँचल में टूट रहे है ख़ुद में ही धूमिल हो रहे है ।
चलिए सुनते है आज की कविता " धूमिल "
How does it feel, when something you were looking for the same for years, but suddenly it starts breaking down, it starts falling apart. Nowadays something similar is happening with my mountains. They are breaking into their own zone, they are getting tarnished in themselves.
Let's hear today's poem "Dhumil"
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