Environmental सार्वजनिक
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Pratidin Ek Kavita

Nayi Dhara Radio

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रोज
 
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Hindu Podcast

Sanjit Mahapatra

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मासिक
 
This channel is for a “Sanatana-Hindu-Vedic-Arya”. This is providing education and awareness; not entertainment. This talks about views from tradition and lineage. It will cover different Acharayas talks on Spirituality, Scriptures, Nationalism, Philosophy, and Rituals. These collections are not recorded in professional studios using high-end equipment, it is from traditional teachings environment. We are having the objective to spread the right things to the right people for the Sanatana Hi ...
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THE HOLISTIC HeYAT Show

HOLISTIC HeYAT

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मासिक
 
Welcome to The Holistic Heyat Show! 🎙️ कुछ बातें होंगी। कुछ दिल की बातें होंगी। कुछ जिंदगी की बातें होंगी। कुछ मोहब्बत की बातें होंगी। कुछ कामयाबी की बातें होंगी। किसी की दुआ की बातें होंगी। अपनी भाई और बहनों को उम्मीद दे सकूं। बातें बड़ी नहीं है सिर्फ बात लंबी है। उम्मीद। Join us as we delve into heartfelt stories, life lessons, and inspiring journeys. Our podcast brings together everyday heroes and insightful guests to share their experiences, providing motivation and igniting minds.✨ Stay ...
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Shudh Desi Chai

ED Studios

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मासिक
 
Shudh Desi Chai is a fortnightly fun conversational podcast, where our hosts Himannshu Sharma & Chef Harpal Singh Sokhi sit across with some amazing guests to have amazing conversations and where they share some interesting facts about food & nutrition with their listeners. शुद्ध देसी चाय एक मजेदार संवादात्मक पॉडकास्ट है, जहां हिमांशु शर्मा और हरपाल सिंह सोखी अपने मेहमानों के साथ कुछ अद्भुत और सार्थक बातचीत करते हैं और जहां वे अपने श्रोताओं के साथ भोजन और पोषण के बारे में कुछ रोचक तथ्य साझा ...
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अमन का नया सिलसिला चाहता हूँ | लक्ष्मीशंकर वाजपेयी अमन का नया सिलसिला चाहता हूँ जो सबका हो ऐसा ख़ुदा चाहता हूँ। जो बीमार माहौल को ताज़गी दे वतन के लिए वो हवा चाहता हूँ। कहा उसने धत इस निराली अदा से मैं दोहराना फिर वो ख़ता चाहता हूँ। तू सचमुच ख़ुदा है तो फिर क्या बताना तुझे सब पता है मैं क्या चाहता हूँ। मुझे ग़म ही बांटे मुक़द्दर ने लेकिन मैं सबको ख़ु…
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सपने | शिवम चौबे रिक्शे वाले सवारियों के सपने देखते हैं सवारियाँ गंतव्य के दुकानदार के सपने में ग्राहक ही आएं ये ज़रूरी नहीं मॉल भी आ सकते हैं छोटे व्यापारी पूंजीपतियों के सपने देखते हैं। पूंजीपति प्रधानमंत्री के सपने देखता है प्रधानमंत्री के सपने में सम्भव है जनता न आये आम आदमी अच्छे दिन के स्वप्न देखता है। पिता देखते हैं अपना घर होने का सपना माँ क…
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मैं उनका ही होता| गजानन माधव मुक्तिबोध मैं उनका ही होता, जिनसे मैंने रूप-भाव पाए हैं। वे मेरे ही लिए बँधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं। मेरे शब्द, भाव उनके हैं, मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा, ऐसे किंतु चाव उनके हैं। मैं ऊँचा होता चलता हूँ उनके ओछेपन से गिर-गिर, उनके छिछलेपन से खुद-खुद, मैं गहरा होता चलता हूँ।…
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प्रेम गाथा | अजय कुमार प्रेम एक कमरे को कैनवास में तब्दील कर के उसमें आँक सकता है एक बादल जंगल में नाचता हुआ मोर एक गिरती हुई बारिश देवदार का एक पेड़ एक सितारों भरी रेशमी रात एक अलसाई गुनगुनाती सुबह समुंदर की लहरों को मदमदाता शोर प्रेम एक गलती को दे सकता है पद्म विभूषण एक झूठ को सहेज कर रख सकता है आजीवन एक पराजय का सहला सकता है माथा और हर प्रतीक्षा…
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चँदेरी | कुमार अम्बुज चंदेरी मेरे शहर से बहुत दूर नहीं है मुझे दूर जाकर पता चलता है बहुत माँग है चंदेरी की साड़ियों की चँदेरी मेरे शहर से इतनी क़रीब है कि रात में कई बार मुझे सुनाई देती है करघों की आवाज़ जब कोहरा नहीं होता सुबह-सुबह दिखाई देते हैं चँदेरी के किले के कंगूरे चँदेरी की दूरी बस इतनी है जितनी धागों से कारीगरों की दूरी मेरे शहर और चँदेरी …
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वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा | परवीन शाकिर वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जाँ फिरता है एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा वो जब आएगा तो फिर उस की रिफ़ाक़त के लिए मौसम-ए-गुल मिरे आँगन में ठहर जाएगा आख़िरश …
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सिलबट्टा | प्रशांत बेबार वो पीसती है दिन रात लगातार मसाले सिलबट्टे पर तेज़ तीखे मसाले अक्सर जलने वाले पीसकर दाँती तानकर भौहें वो पीसती है हरी-हरी नरम पत्तियाँ और गहरे काले लम्हे सिलेटी से चुभने वाले किस्से वो पीसती हैं मीठे काजू, भीगे बादाम और पीस देना चाहती है सभी कड़वी भददी बेस्वाद बातें लगाकर आलती-पालती लिटाकर सिल, उठाकर सिरहाना उसका दोनों हथेलि…
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अड़ियल साँस | केदारनाथ सिंह पृथ्वी बुख़ार में जल रही थी और इस महान पृथ्वी के एक छोटे-से सिरे पर एक छोटी-सी कोठरी में लेटी थी वह और उसकी साँस अब भी चल रही थी और साँस जब तक चलती है झूठ सच पृथ्वी तारे - सब चलते रहते हैं डॉक्टर वापस जा चुका था और हालाँकि वह वापस जा चुका था पर अब भी सब को उम्मीद थी कि कहीं कुछ है। जो बचा रह गया है नष्ट होने से जो बचा रह …
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ऐ औरत! | नासिरा शर्मा जाड़े की इस बदली भरी शाम को कहाँ जा रही हो पीठ दिखाते हुए ठहरो तो ज़रा! मुखड़ा तो देखूँ कि उस पर कितनी सिलवटें हैं थकन और भूख-प्यास की सर पर उठाए यह सूखी लकड़ियों का गट्ठर कहाँ लेकर जा रही हो इसे? तुम्हें नहीं पता है कि लकड़ी जलाना, धुआँ फैलाना, वायु को दूषित करना अपराध है अपराध! गैस है, तेल है ,क्यों नहीं करतीं इस्तेमाल उसे त…
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हार | प्रभात जब-जब भी मैं हारता हूँ मुझे स्त्रियों की याद आती है और ताक़त मिलती है वे सदा हारी हुई परिस्थिति में ही काम करती हैं उनमें एक धुन एक लय एक मुक्ति मुझे नज़र आती है वे काम के बदले नाम से गहराई तक मुक्त दिखलाई पड़ती हैं असल में वे निचुड़ने की हद तक थक जाने के बाद भी इसी कारण से हँस पाती हैं कि वे हारी हुई हैं विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें…
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ग़ुस्सा | गुलज़ार बूँद बराबर बौना-सा भन्नाकर लपका पैर के अँगूठे से उछला टख़नों से घुटनों पर आया पेट पे कूदा नाक पकड़ कर फन फैला कर सर पे चढ़ गया ग़ुस्सा!द्वारा Nayi Dhara Radio
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मरीज़ का नाम- उस्मान ख़ान चाहता हूँ किसी शाम तुम्हें गले लगाकर ख़ूब रोना लेकिन मेरे सपनों में भी वो दिन नहीं ढलता जिसके आख़री सिरे पर तुमसे गले मिलने की शाम रखी है सुनता हूँ कि एक नए कवि को भी तुमसे इश्क़ है मैं उससे इश्क़ करने लगा हूँ मेरे सारे दुःस्वप्नों के बयान तुम्हारे पास हैं और तुम्हारे सारे आत्मालाप मैंने टेप किए हैं मैं साइक्रेटिस्ट की तरफ़…
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बनाया है मैंने ये घर | रामदरश मिश्र बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला कटा ज़िन्दगी का सफर धीरे-धीरे जहाँ आप पहुँचे छलॉंगें लगा कर वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी उठाता गया यों ही सर धीरे-धीरे गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे न हँस…
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अपने आप से | ज़ाहिद डार मैं ने लोगों से भला क्या सीखा यही अल्फ़ाज़ में झूटी सच्ची बात से बात मिलाना दिल की बे-यक़ीनी को छुपाना सर को हर ग़बी कुंद-ज़ेहन शख़्स की ख़िदमत में झुकाना हँसना मुस्कुराते हुए कहना साहब ज़िंदगी करने का फ़न आप से बेहतर तो यहाँ कोई नहीं जानता है गुफ़्तुगू कितनी भी मजहूल हो माथा हमवार कान बेदार रहें आँखें निहायत गहरी सोच में डू…
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मेरा घर, उसका घर / आग्नेय एक चिड़िया प्रतिदिन मेरे घर आती है जानता नहीं हूँ उसका नाम सिर्फ़ पहचानता हूँ उसको वह चहचहाती है देर तक ढूँढती है दाने : और फिर उड़ जाती है अपने घर की ओर पर उसका घर कहाँ है? घर है भी उसका या नहीं है उसका घर? यदि उसका घर है तब भी उसका घर मेरे घर जैसा नहीं होगा लहूलुहान और हाहाकार से भरा फिर क्यों आती है वह मेरे घर प्रतिदिन …
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रचना की आधी रात | केदारनाथ सिंह अन्धकार! अन्धकार! अन्धकार आती है कानों में फिर भी कुछ आवाज़ें दूर बहुत दूर कहीं आहत सन्नाटे में रह- रहकर ईटों पर ईटों के रखने की फलों के पकने की ख़बरों के छपने की सोए शहतूतों पर रेशम के कीड़ों के जगने की बुनने की. और मुझे लगता है जुड़ा हुआ इन सारी नींदहीन ध्वनियों से खोए इतिहासों के अनगिनत ध्रुवांतों पर मैं भी रचना- …
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धरती की बहनें | अनुपम सिंह मैं बालों में फूल खोंस धरती की बहन बनी फिरती हूँ मैंने एक गेंद अपने छोटे भाई आसमान की तरफ़ उछाल दी है। हम तीनों की माँ नदी है बाप का पता नहीं मेरा पड़ोसी ग्रह बदल गया है। कोई और आया है किरायेदार बनकर अब से मेरी सारी डाक उसी के पते पर आएगी मैंने स्वर्ग से बुला लिया है अप्सराओं को वे इन्द्र से छुटकारा पा ख़ुश हैं। आज रात हम …
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पहली पेंशन /अनामिका श्रीमती कार्लेकर अपनी पहली पेंशन लेकर जब घर लौटीं– सारी निलम्बित इच्छाएँ अपना दावा पेश करने लगीं। जहाँ जो भी टोकरी उठाई उसके नीचे छोटी चुहियों-सी दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएँ! श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं क्या-क्या ख़रीदें, किससे कैसे निपटें ! सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाईं झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर चूहेदानी में इच्छाएँ फँसाईं…
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इस तरह रहना चाहूँगा | शहंशाह आलम इस तरह रहना चाहूँगा भाषा में जिस तरह शहद मुँह में रहता है रहूँगा किताब में मोरपंख की तरह रहूँगा पेड़ में पानी में धूप में धान में हालत ख़राब है जिस आदमी की बेहद उसी के घर रहूँगा उसके चूल्हे को सुलगाता जिस तरह रहता हूँ डगमग चल रही बच्ची के नज़दीक हमेशा उसको सँभालता इस तरह रहूँगा तुम्हारे निकट जिस तरह पिता रहते आए हैं…
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ये लोग | नरेश सक्सेना तूफान आया था कुछ पेड़ों के पत्ते टूट गए हैं कुछ की डालें और कुछ तो जड़ से ही उखड़ गए हैं इनमें से सिर्फ़ कुछ ही भाग्यशाली ऐसे बचे जिनका यह तूफान कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया ये लोग ठूँठ थे।द्वारा Nayi Dhara Radio
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क्या भूलूं क्या याद करूं मैं | हरिवंश राय बच्चन अगणित उन्मादों के क्षण हैं, अगणित अवसादों के क्षण हैं, रजनी की सूनी की घड़ियों को किन-किन से आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! याद सुखों की आसूं लाती, दुख की, दिल भारी कर जाती, दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! दोनों करके पछताता हूं, सोच नहीं…
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मंच से | वैभव शर्मा मंच के एक कोने से शोर उठता है और रोशनी भी सामने बैठी जनता डर से भर जाती है। मंच से बताया जाता है शांती के पहले जरूरी है क्रांति तो सामने बैठी जनता जोश से भर जाती है। शोर और रोशनी की ओर बढ़ती है। डरी हुई जनता खड़े होते हैं हाथ और लाठियां खड़ी होती है डरी हुई भयावह जनता डरी हुई भीड़ बड़ी भयानक होती है। डरे हुए लोग अपना डर मिटाने ह…
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बच्चू बाबू | कैलाश गौतम बच्चू बाबू एम.ए. करके सात साल झख मारे खेत बेंचकर पढ़े पढ़ाई, उल्लू बने बिचारे कितनी अर्ज़ी दिए न जाने, कितना फूँके तापे कितनी धूल न जाने फाँके, कितना रस्ता नापे लाई चना कहीं खा लेते, कहीं बेंच पर सोते बच्चू बाबू हूए छुहारा, झोला ढोते-ढोते उमर अधिक हो गई, नौकरी कहीं नहीं मिल पाई चौपट हुई गिरस्ती, बीबी देने लगी दुहाई बाप कहे आ…
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मौत के फ़रिश्ते | अब्दुल बिस्मिल्लाह अपने एक हाथ में अंगारा और दूसरे हाथ में ज़हर का गिलास लेकर जिस रोज़ मैंने अपनी ज़िंदगी के साथ पहली बार मज़ाक़ किया था उस रोज़ मैं दुनिया का सबसे छोटा बच्चा था जिसे न दोज़ख़ का पता होता न ख़ुदकुशी का और भविष्य जिसके लिए माँ के दूध से अधिक नहीं होता उसी बच्चे ने मुझे छला और मज़ाक़ के बदले में ज़िंदगी ने ऐसा तमाचा …
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टॉर्च | मंगलेश डबराल मेरे बचपन के दिनों में एक बार मेरे पिता एक सुन्दर-सी टॉर्च लाए जिसके शीशे में खाँचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों की हेडलाइट में होते हैं। हमारे इलाके में रोशनी की वह पहली मशीन थी जिसकी शहतीर एक चमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी एक सुबह मेरे पड़ोस की एक दादी ने पिता से कहा बेटा, इस मशीन से चूल्हा जलाने के लिए थोड़ी स…
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सूटकेस : न्यूयर्क से घर तक | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी "इस अनजान देश में अकेले छोड़ रहे मुझे" मेरे सूटकेस ने बेबस निगाहों से देखा जैसे परकटा पक्षी देखता हो गरुड़ को उसकी भरी आँखों में क्या था एक अपाहिज परिजन की कराह या किसी डुबते दोस्त की पुकार कि उठा लिया उसे जिसकी मुलायम पसलियां टूट गई थीं हवाई यात्रा के मालामाल बक्सों बीच कमरे से नीचे लाया जमा कर द…
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आँगन गायब हो गया | कैलाश गौतम घर फूटे गलियारे निकले आँगन गायब हो गया शासन और प्रशासन में अनुशासन ग़ायब हो गया । त्यौहारों का गला दबाया बदसूरत महँगाई ने आँख मिचोली हँसी ठिठोली छीना है तन्हाई ने फागुन गायब हुआ हमारा सावन गायब हो गया । शहरों ने कुछ टुकड़े फेंके गाँव अभागे दौड़ पड़े रंगों की परिभाषा पढ़ने कच्चे धागे दौड़ पड़े चूसा ख़ून मशीनों ने अपनापन…
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नहीं निगाह में | फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वुज़ू ही सही किसी तरह तो जमे बज़्म मय-कदे वालो नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हाव-हू ही सही गर इंतिज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तुगू ही सही दयार-ए-ग़ैर …
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तलाश में वहाँ | नंदकिशोर आचार्य जाते हैं तलाश में वहाँ जड़ों की जो अक्सर खुद जड़ हो जाते हैं इतिहास मक़बरा है पूजा जा सकता है जिसको जिसमें पर जिया नहीं जाता जीवन इतिहास बनाता हो -चाहे जितना- साँसें भविष्य की ही लेता है वह रचना भविष्य का ही इतिहास बनाना है।द्वारा Nayi Dhara Radio
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गमन | आग्नेय फूल के बोझ से टूटती नहीं है टहनी फूल ही अलग कर दिया जाता है टहनी से उसी तरह टूटता है संसार टूटता जाता है संसार-- मेरा और तुम्हारा चमत्कार है या अत्याचार है इस टूटते जाने में सिर्फ़ जानता है टहनी से अलग कर दिया गया फूलद्वारा Nayi Dhara Radio
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हत्यारे कुछ नहीं बिगाड़ सकते/ चंद्रकांत देवताले नाम मेरे लिए पेड़ से एक टूटा पत्ता हवा उसकी परवाह करे मेरे भीतर गड़ी दूसरी ही चीज़ें पृथ्वी की गंध और पुरखों की अस्थियाँ उनकी आँखों समेत मेरे मस्तिष्क में तैनात संकेत नक्षत्रों के बताते जो नहीं की जा सकती सपनों की हत्या मैं नहीं ज़िंदा तोड़ने कुर्सियाँ जोड़ने हिसाब ईज़ाद करने करिश्मे शैतानों के मैं हूँ…
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लेबर चौक | शिवम चौबे कठरे में सूरज ढोकर लाते हुए गमछे में कन्नी, खुरपी, छेनी, हथौड़ी बाँधे हुए रूखे-कटे हाथों से समय को धरकेलते हुए पुलिस चौकी और लाल चौक के ठीक बीच जहाँ रोज़ी के चार रास्ते खुलते है और कई बंद होते हैं जहाँ छतनाग से, अंदावा से, रामनाथपुर से जहाँ मुस्तरी या कुजाम से मुंगेर या आसाम से पूंजीवाद की आंत में अपनी ज़मीनों को पचता देख अगली …
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कथरियाँ | एकता वर्मा कथरियाँ गृहस्थियों के उत्सव-गीत होती हैं। जेठ-वैसाख के सूखे हल्के दिनों में सालों से संजोये गए चीथड़ों को क़रीने से सजाकर औरतें बुनती हैं उनकी रंग-बिरंगी धुन। वे धूप की कतरनों पर फैलती हैं तो उठती है, हल्दी और सरसों के तेल की पुरानी सी गंध। गौने में आयी उचटे रंग की साड़ियाँ बिछ जाती हैं महुए की ललायी कोपलों की तरह जड़ों की स्मृ…
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रिश्ता | अनामिका वह बिल्कुल अनजान थी! मेरा उससे रिश्ता बस इतना था कि हम एक पंसारी के गाहक थे नए मुहल्ले में! वह मेरे पहले से बैठी थी- टॉफी के मर्तबान से टिककर स्टूल के राजसिंहासन पर! मुझसे भी ज़्यादा थकी दिखती थी वह फिर भी वह हँसी! उस हँसी का न तर्क था, न व्याकरण, न सूत्र, न अभिप्राय! वह ब्रह्म की हँसी थी। उसने फिर हाथ भी बढ़ाया, और मेरी शॉल का सिर…
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कैसे बचाऊँगा अपना प्रेम | आलोक आज़ाद स्टील का दरवाजा गोलियों से छलनी हआ कराहता है और ठीक सामने, तुम चांदनी में नहाए, आँखों में आंसू लिए देखती हो हर रात एक अलविदा कहती है। हर दिन एक निरंतर परहेज में तब्दील हुआ जाता है क्या यह आखिरी बार होगा जब मैं तुम्हारे देह में लिपर्टी स्जिग्धता को महसूस कर रहा हूं और तुम्हारे स्पर्श की कस्तूरी में डूब रहा हूं देख…
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कंकरीला मैदान | केदारनाथ अग्रवाल कंकरीला मैदान ज्ञान की तरह जठर-जड़ लंबा-चौड़ा, गत वैभव की विकल याद में- बड़ी दूर तक चला गया है गुमसुम खोया! जहाँ-तहाँ कुछ- कुछ दूरी पर, उसके ऊपर, पतले से पतले डंठल के नाज़ुक बिरवे थर-थर हिलते हुए हवा में खड़े हुए हैं बेहद पीड़ित! हर बिरवे पर मुँदरी जैसा एक फूल है। अनुपम मनहर, हर ऐसी सुंदर मुँदरी को मीनों ने चंचल आँखो…
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तब्दीली | अख़्तरुल ईमान इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं जो मुझे राह चलते को पहचान ले और आवाज़ दे ओ बे ओ सर-फिरे दोनों इक दूसरे से लिपट कर वहीं गिर्द-ओ-पेश और माहौल को भूल कर गालियाँ दें हँसें हाथा-पाई करें पास के पेड़ की छाँव में बैठ कर घंटों इक दूसरे की सुनें और कहें और इस नेक रूहों के बाज़ार में मेरी ये क़ीमती बे-बहा ज़िंदगी एक दिन के लिए अपना रुख़ म…
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मीरा मजूमदार का कहना है | कुमार विकल सामने क्वार्टरों में जो एक बत्ती टिमटिमाती है वह मेरा घर है इस समय रात के बारह बज चुके हैं मैं मीरा मजूमदार के साथ मार्क्सवाद पर एक शराबी बहस करके लौटा हूँ और जहाँ से एक औरत के खाँसने की आवाज़ आ रही है वह मेरा घर है मीरा मजूमदार का कहना है कि इन्क़लाब के रास्ते पर एक बाधा मेरा घर है जिसमें खाँसती हुई एक बत्ती है…
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एक समय था- रघुवीर सहाय एक समय था मैं बताता था कितना नष्ट हो गया है अब मेरा पूरा समाज तब मुझे ज्ञात था कि लोग अभी व्यग्न हैं बनाने को फिर अपना परसों कल और आज आज पतन की दिशा बताने पर शक्तिवान करते हैं कोलाहल तोड़ दो तोड़ दो तोड़ दो झोंपड़ी जो खड़ी है अधबनी फ़िज़ूल था बनाना ज़िद समता की छोड़ दो एक दूसरा समाज बलवान लोगों का आज बनाना ही पुनर्निर्माण है जिन…
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देश हो तुम | अरुणाभ सौरभ में तुम्हारी कोख से नहीं तुम्हारी देह के मैल से उत्पन्न हुआ हूँ भारतमाता विघ्नहरत्ता नहीं बना सकती माँ तुम पर इतनी शक्ति दो कि भय-भूख से मुत्ति का रास्ता खोज सकूँ बुद्ध-सी करुणा देकर संसार में अहिंसा - शांति-त्याग की स्थापना हो में तुम्हारा हनु पवन पुत्र मेरी भुजाओं को वज्र शक्ति से भर दो कि संभव रहे कुछ अमरत्व और पूजा नहीं…
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हम मिलते हैं बिना मिले ही | केदारनाथ अग्रवाल हे मेरी तुम! हम मिलते हैं बिना मिले ही मिलने के एहसास में जैसे दुख के भीतर सुख की दबी याद में। हे मेरी तुम! हम जीते हैं बिना जिये ही जीने के एहसास में जैसे फल के भीतर फल के पके स्वाद में।द्वारा Nayi Dhara Radio
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कम से कम एक दरवाज़ा | सुधा अरोड़ा चाहे नक़्क़ाशीदार एंटीक दरवाज़ा हो या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना उस पर खूबसूरत हैंडल जड़ा हो या लोहे का कुंडा वह दरवाज़ा ऐसे घर का हो जहाँ माँ बाप की रज़ामंदी के बग़ैर अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से माता पिता कह सकें - 'जानते हैं, तुमने ग़लत फ़ैसला लिया फिर भी हमारी यही दुआ है ख़ुश रहो उसके साथ जिसे तुमने वरा है य…
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सुनो कबीर ! | नासिरा शर्मा सुनो कबीर, चलो मेरे साथ वहाँ जहाँ तुम्हारी प्रताड़ना के बावजूद डूब रहे हैं दोनों पक्ष ज़रूरत है उन्हें तुम्हारी फटकार की वह नहीं सुन रहे हैं हमारी बातें हमारी चेतावनी, कर रहे हैं मनमानी अंधविश्वास की पट्टी बंध चुकी है उनकी रौशन आँखों पर और आगे का रास्ता भूल , वह भटक रहे हैं पीछे बहुत पीछे अतीत की ओर तुम्हीं सिखा सकते हो, …
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सूर्यास्त के आसमान | आलोक धन्वा उतने सूर्यास्त के उतने आसमान उनके उतने रंग लम्बी सडकों पर शाम धीरे बहुत धीरे छा रही शाम होटलों के आसपास खिली हुई रौशनी लोगों की भीड़ दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे उनके कंधे जानी -पह्चानी आवाज़ें कभी लिखेंगें कवि इसी देश में इन्हें भी घटनाओं की तरह!द्वारा Nayi Dhara Radio
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पहले बच्चे के जन्म से पहले | नरेश सक्सेना साँप के मुँह में दो ज़ुबानें होती हैं। मेरे मुँह में कितनी हैं अपने बच्चे को दुआ किस ज़ुबान से दूँगा खून सनी उँगलियाँ झर तो नहीं जाएँगी पतझर में अपनी कौन-सी उँगली उसे पकड़ाऊँगा सात रंग बदलता है गिरगिट मैं कितने बदलता हूँ किस रंग की रोशनी का पाठ उसे पढ़ाऊँगा आओ मेरे बच्चे मुझे पुनर्जन्म देते हुए आओ मेरे मैल पर…
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इस समय | नीलेश रघुवंशी एक कोने में बिल्ली अपने बच्चों को दूध पिला रही है। छोटे-छोटे बच्चे और बिल्ली इतने सटे हुए हैं आपस में मुश्किल है उन्हें गिननाq एक औरत पेड़ में रस्सी का झुला डाल, झुला रही है बच्चे को साथ-साथ बच्चे के-औरत भी जा रही है धीरे-धीरे नींद में इस समय एक पत्ता भी नहीं खड़कना चाहिए।द्वारा Nayi Dhara Radio
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मैंने पूछा क्या कर रही हो | अज्ञेय मैंने पूछा यह क्या बना रही हो? उसने आँखों से कहा धुआँ पोंछते हुए कहा- मुझे क्या बनाना है! सब-कुछ अपने आप बनता है। मैने तो यही जाना है। कह लो भगवान ने मुझे यही दिया है। मेरी सहानुभूति में हठ था- मैंने कहा- कुछ तो बना रही हो या जाने दो, न सही बना नहीं रही क्या कर रही हो? वह बोली- देख तो रहे हो छीलती हूँ नमक छिड़कती …
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घरौंदा | एकता वर्मा धूल में नहाए शैतान बच्चे खेल रहे हैं घरौंदा-घरौंदा। जोड़ रहे हैं ईट के टुकडे, पत्थर, सीमेंट के गुटके बना रहे हैं नन्हे-न्हे घर हँस रहे हैं, तालियाँ पीट रहे हैं। यह फ़िलिस्तीन का दुर्भाग्य है कि उसके बच्चे अपने न्हे घरों को बनाने के लिए चुन रहे हैं मलबा पड़ोसियों के ज़मीदोज़ हुए मकानों से। मैंने पूछा क्या कर रहे हो?…
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एक बोसा | कैफ़ी आज़मी जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को सौ चराग अँधेरे में जगमगाने लगते हैं फूल क्या शगूफे क्या चाँद क्या सितारे क्या सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं रक्स करने लगतीं हैं मूरतें अजन्ता की मुद्दतों के लब-बस्ता ग़ार गाने लगते हैं फूल खिलने लगते हैं उजड़े उजड़े गुलशन में प्यासी प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं लम्हें भर को ये दुन…
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घिसी पेंसिल | रघुवीर सहाय फिर रात आ रही है। फिर वक्त आ रहा है। जब नींद दुःख दिन को संपूर्ण कर चलेंगे एकांत उपस्थत हो, 'सोने चलो' कहेगा क्या चीज़ दे रही है यह शांति इस घड़ी में ? एकांत या कि बिस्तर या फिर थकान मेरी ? या एक मुड़े कागज़ पर एक घिसी पेंसिल तकिये तले दबाकर जिसको कि सो गया हूँ ?द्वारा Nayi Dhara Radio
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