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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Hindu Podcast

Sanjit Mahapatra

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This channel is for a “Sanatana-Hindu-Vedic-Arya”. This is providing education and awareness; not entertainment. This talks about views from tradition and lineage. It will cover different Acharayas talks on Spirituality, Scriptures, Nationalism, Philosophy, and Rituals. These collections are not recorded in professional studios using high-end equipment, it is from traditional teachings environment. We are having the objective to spread the right things to the right people for the Sanatana Hi ...
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Shudh Desi Chai

ED Studios

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Shudh Desi Chai is a fortnightly fun conversational podcast, where our hosts Himannshu Sharma & Chef Harpal Singh Sokhi sit across with some amazing guests to have amazing conversations and where they share some interesting facts about food & nutrition with their listeners. शुद्ध देसी चाय एक मजेदार संवादात्मक पॉडकास्ट है, जहां हिमांशु शर्मा और हरपाल सिंह सोखी अपने मेहमानों के साथ कुछ अद्भुत और सार्थक बातचीत करते हैं और जहां वे अपने श्रोताओं के साथ भोजन और पोषण के बारे में कुछ रोचक तथ्य साझा ...
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प्रेम के लिए फाँसी | अनामिका मीरा रानी तुम तो फिर भी ख़ुशक़िस्मत थीं, तुम्हें ज़हर का प्याला जिसने भी भेजा, वह भाई तुम्हारा नहीं था भाई भी भेज रहे हैं इन दिनों ज़हर के प्याले! कान्हा जी ज़हर से बचा भी लें, क़हर से बचाएँगे कैसे! दिल टूटने की दवा मियाँ लुक़मान अली के पास भी तो नहीं होती! भाई ने जो भेजा होता प्याला ज़हर का, तुम भी मीराबाई डंके की चोट पर हँसकर…
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भड़का रहे हैं आग | साहिर लुधियानवी भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम। कुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हम। ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम। माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम।…
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कोई बस नहीं जाता | नंदकिशोर आचार्य कोई बस नहीं जाता खंडहरों में लोग देखने आते हैं बस । जला कर अलाव आसपास उग आये घास-फूस और बिखरी सूखी टहनियों का एक रात गुज़ारी भी किसी ने यहाँ सुबह दम छोड़ जाते हुए केवल राख । खंडहर फिर भी उस का कृतज्ञ है बसेरा किया जिस ने उसे – रात भर की खातिर ही सही। उसे भला यह इल्म भी कब थाः गुज़रती है जो खंडहर पर फिर से खंडहर हो…
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अगर तुम मेरी जगह होते | निर्मला पुतुल ज़रा सोचो, कि तुम मेरी जगह होते और मैं तुम्हारी तो, कैसा लगता तुम्हें? कैसा लगता अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में होता तुम्हारा गाँव और रह रहे होते तुम घास-फूस की झोपड़ियों में गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम…
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मन बहुत सोचता है | अज्ञेय मन बहुत सोचता है कि उदास न हो पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए? शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले, पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए! नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े, खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ, पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी, धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर, सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे, वह कहूँ भी तो सुनने को कोई…
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भुतहा बाग़ | केदारनाथ सिंह उधर जाते हुए बचपन में डर लगता था राही अक्सर बदल देते थे रास्ता और उत्तर के बजाय निकल जाते थे दक्खिन से अबकी गया तो देखा भुतहा बाग़ में खेल रहे थे बच्चे वहाँ बन गए थे कच्चे कुछ पक्के मकान दिखते थे दूर से कुछ बिजली के खंभे भी लोगों ने बताया जिस दिन गाड़ा गया पहला खम्भा एक आवाज़-सी सुनाई पड़ी थी मिट्टी के नीचे से पर उसके बाद क…
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अपरिभाषित | अजेय जुगरान बारह - तेरह के होते - होते कुछ बच्चे खो जाते हैं अपनी परिभाषा खोजते - खोजते किसी का मन अपने तन से नहीं मिलता किसी का तन बचपन के अपने दोस्तों से। ये किशोर कट से जाते हैं आसपास सबसे और अपनी परिभाषा खोजने की ऊहापोह में अपने तन पर लिखने लगते हैं सुई काँटों टूटे शीशों से एक घनघोर तनाव - अपवाद की भाषा जो आस्तीनों - मफ़लरों के नीचे…
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हाथ थामना | तन्मय पाठक तुम समंदर से बेशक़ सीखना गिरना उठना परवाह ना करना पर तालाब से भी सीखते रहना कुछ पहर ठहर कर रहना तुम नदियों से बेशक़ सीखना अपनी राह पकड़ कर चलना संगम से भी पर सीखते रहना बाँहें खोल कर मिलना घुलना तुम याद रखना कि डूबना भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि तैरना तुम डूबने उतरना दरिया में बचपने पर भरोसा करना बच पाने की उम्मीद रखना ये बताने …
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हिटलर की चित्रकला | राजेश जोशी यह उम्मीस सौ आठ में उन दिनों की बात है जब हिटलर ने पेन्सिल से एक शांत गाँव का चित्र बनाया था यह सन्‌ उन्‍नीस सौ आठ में उन दिनों की बात है जब दूसरी बार वियना की कला दीर्धा ने चित्रकला के लिए अयोग्य ठहरा दिया था हिटलर को उस छोटे से चित्र पर हिटलर के हस्ताक्षर थे इसलिए इंगलैण्ड के एक व्यवसायी ने जब नीलाम किया उस चित्र को…
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नदी कभी नहीं सूखती | दामोदर खड़से पौ फटने से पहले सारी बस्ती ही गागर भर-भरकर अपनी प्यास बुझाती रही फिर भी नदी कुँवारी ही रही क्योंकि, नदी कभी नहीं सूखती नदी, इस बस्ती की पूर्वज है! पीढ़ियों के पुरखे इसी नदी में डुबकियाँ लगाकर अपना यौवन जगाते रहे सूर्योदय से पहले सतह पर उभरे कोहरे में अंजुरी भर अनिष्ट अँधेरा नदी में बहाते रहे हर शाम बस्ती की स्त्रिया…
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दिन डूबा | रामदरश मिश्रा दिन डूबा अब घर जाएँगे कैसा आया समय कि साँझे होने लगे बन्द दरवाज़े देर हुई तो घर वाले भी हमें देखकर डर जाएँगे आँखें आँखों से छिपती हैं नज़रों में छुरियाँ दिपती हैं हँसी देख कर हँसी सहमती क्या सब गीत बिखर जाएँगे? गली-गली औ' कूचे-कूचे भटक रहा पर राह ने पूछे काँप गया वह, किसने पूछा- “सुनिए आप किधर जाएँगे?"…
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ठिठुरते लैंप पोस्ट | अदनान कफ़ील दरवेश वे चाहते तो सीधे भी खड़े रह सकते थे लेकिन आदमियों की बस्ती में रहते हुए उन्होंने सीख ली थी अतिशय विनम्रता और झुक गए थे सड़कों पर आदमियों के पास, उन्हें देखने के अलग-अलग नज़रिए थे : मसलन, किसी को वे लगते थे बिल्कुल संत सरीखे दृढ़ और एक टाँग पर योग-मुद्रा में खड़े किसी को वे शहंशाह के इस्तक़बाल में क़तारबंद खड़े सिपाहिय…
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ख़ुद से | रेणु कश्यप गिरो कितनी भी बार मगर उठो तो यूँ उठो कि पंख पहले से लंबे हों और उड़ान न सिर्फ़ ऊँची पर गहरी भी हारना और डरना रहे बस हिस्सा भर एक लंबी उम्र का और उम्मीद और भरपूर मोहब्बत हों परिभाषाएँ जागो तो सुबह शाँत हो ठीक जैसे मन भी हो कि ख़ुद को देखो तो चूमो माथा गले लगो ख़ुद से चिपककर कि कब से कितने वक़्त से, सदियों से बल्कि उधार चल रहा है अप…
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मेरा मोबाइल नम्बर डिलीट कर दें प्लीज़ - उदय प्रकाश सबसे पहले सिर्फ़ आवाज़ थी कोई नाद था और उसके सिवा कुछ भी नहीं उसी आवाज़ से पैदा हुआ था ब्रह्माण्ड आवाज़ जब गायब होती है तो कायनात किसी सननाटे में डूब जाती है जब आप फ़ोन करते हैं क्या पता चलता नहीं आपको कि सननाटे के महासागर में डूबे किसी बहुत प्राचीन अभागे जहाज को आप पुकार रहे हैं? मेरा मोबाइल नम्बर…
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प्रेम में प्रेम की उम्मीद | ममता बारहठ जीवन से बचाकर ले जाऊँगी देखना प्रेम के कुछ क़तरे मुट्ठियों में भींचकर प्रेम की ये कुछ बूँदें जो बची रह जाएँगी छाया से मृत्यु की बनेंगी समंदर और आसमान मिट्टी और हवा यही बनेंगी पहाड़ और जंगल और स्वप्न नए देखना तुम यह बचा हुआ प्रेम ही बनेगा फिर नया जन्म मेरा!द्वारा Nayi Dhara Radio
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दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है | विनोद कुमार शुक्ल दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है कहकर मैं अपने घर से चला। यहाँ पहुँचते तक जगह-जगह मैंने यही कहा और यही कहता हूँ कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। जहाँ पहुँचता हूँ वहाँ से चला जाता हूँ। दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है— बार-बार यही कह रहा हूँ और कितना समय बीत गया है लौटकर मै…
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स्त्री को समझने के लिए - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कैसे उतरता है स्तनों में दूध कैसे झनकते हैं ममता के तार कैसे मरती हैं कामनाएँ कैसे झरती हैं दंतकथाएं कैसे टूटता है गुड़ियों का घर कैसे बसता है चूड़ियों का नगर कैसे चमकते हैं परियों के सपने... कैसे फड़कते हैं हिंस्र पशुओं के नथुने कितना गाढ़ा लांछन का रंग कितनी लम्बी चूल्हे की सुरंग कितना गाढ़ा सृजन का अ…
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कीर्ति का विहान हूँ | स्व. कन्हैया लाल पण्ड्या ‘सुमन’ मैं स्वतंत्र राष्ट्र की कीर्ति का विहान हूँ। काल ने कहा रुको शक्ति ने कहा झुको पाँव ने कहा थको किन्तु मैं न रुक सका, न झुक सका, न थक सका क्योंकि मैं प्रकृति प्रबोध का सतत् प्रमाण हूँ कीर्ति का विहान हूँ। भीत ने कहा डरो ज्वाल ने कहा जरो मृत्यु ने कहा मरो किन्तु मैं न डर सका, न जर सका, न मर सका क्…
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तय तो यही हुआ था - शरद बिलाैरे सबसे पहले बायाँ हाथ कटा फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए टुकड़ों में कटते चले गए ख़ून दर्द के धक्के खा-खा कर नशों से बाहर निकल आया था तय तो यही हुआ था कि मैं कबूतर की तौल के बराबर अपने शरीर का मांस काट कर बाज़ को सौंप दूँ और वह कबूतर को छोड़ दे सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराज़ू पर था और कबूतर वाला प…
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पगडण्डियाँ - मदन कश्यप हम नहीं जानते उन उन जगहों को वहाँ-वहाँ हमें ले जाती हैं पगडण्डियाँ जहाँ-जहाँ जाती हैं पगडण्डियाँ कभी खुले मैदान में तो कभी सघन झाड़ियों में कभी घाटियों में तो कभी पहाड़ियों में जाने कहाँ-कहाँ ले जाती हैं पगडण्डियों राजमार्गों की तरह पगडण्डियों का कोई बजट नहीं होता कोई योजना नहीं बनती बस बथान से बगान तक मेड़ से मचान तक खेत से …
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घर | अज्ञेय मेरा घर दो दरवाज़ों को जोड़ता एक घेरा है मेरा घर दो दरवाज़ों के बीच है उसमें किधर से भी झाँको तुम दरवाज़े से बाहर देख रहे होंगे तुम्हें पार का दृश्य दिख जाएगा घर नहीं दिखेगा। मैं ही मेरा घर हूँ। मेरे घर में कोई नहीं रहता मैं भी क्या मेरे घर में रहता हूँ मेरे घर में जिधर से भी झाँको...द्वारा Nayi Dhara Radio
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अभुवाता समाज | रूपम मिश्र वे शीशे-बासे से नहीं हरी कनई मिट्टी से बनी थीं जिसमें इतनी नमी थी कि एक सत्ता की चाक पर मनचाहा ढाल दिया जाता नाचती हुई एक स्त्री को अचानक कुछ याद आ जाता है सहम कर खड़ी हो जाती है माथे के पल्‍्लू को और खींच कर दर्द को दबा कर एक भरभराई-सी हँसी हँसती है हमार मालिक बहुत रिसिकट हैं हमरा नाचना उनका नाहीं नीक लगता साथ पुराती दूसर…
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हम औरतें हैं मुखौटे नहीं - अनुपम सिंह वह अपनी भट्ठियों में मुखौटे तैयार करता है उन पर लेबुल लगाकर सूखने के लिए लग्गियों के सहारे टाँग देता है सूखने के बाद उनको अनेक रासायनिक क्रियाओं से गुज़ारता है कभी सबसे तेज़ तापमान पर रखता है तो कभी सबसे कम ऐसा लगातार करने से अप्रत्याशित चमक आ जाती है उनमें विस्फोटक हथियारों से लैस उनके सिपाही घर-घर घूम रहे हैं क…
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क्रांतिपुरुष | चित्रा पँवार कल रात सपने के बगीचे में हवाखोरी करते भगत सिंह से मुलाकात हो गई मैंने पूछा शहीव-ए-आज़म! तुम क्रांतिकारी ना होते तो क्‍या होते? वह ठहाका मारकर हँसे फिर भी क्रांतिकारी ही होता पगली ! खेतों में धान त्रगाता हल चलाता और भूख के विरुद्ध कर देता क्रांति मगर सोचो अगर खेत भी ना होते तुम्हारे पास! तब क्‍या करते!! फिर,,ऐसे में कल्रम…
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शीतलहरी में एक बूढ़े आदमी की प्रार्थना | केदारनाथ सिंह ईश्वर इस भयानक ठंड में जहाँ पेड़ के पत्ते तक ठिठुर रहे हैं मुझे कहाँ मिलेगा वह कोयला जिस पर इन्सानियत का खून गरमाया जाता है एक ज़िन्दा लाल दहकता हुआ कोयला मेरी अँगीठी के लिए बेहद ज़रूरी और हमदर्द कोयला मुझे कहाँ मिलेगा इस ठंड से अकड़े हुए शहर में जहाँ वह हमेशा छिपाकर रखा जाता है घर के पिछवाड़े या …
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तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है | हरिवंशराय बच्चन तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है। देखी मैंने बहुत दिनों तक दुनिया की रंगीनी, किंतु रही कोरी की कोरी मेरी चादर झीनी, तन के तार छूए बहुतों ने मन का तार न भीगा, तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है। अंबर ने ओढ़ी है तन पर चादर नीली-नीली, हरित धरित्री के आँगन में सरसों पीली-पीली, सिंदूरी मंजरियों से ह…
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धरती का शाप | अनुपम सिंह मौत की ओर अग्रसर है धरती मुड़-मुड़कर देख रही है पीछे की ओर उसकी आँखें खोज रही हैं आदिम पुरखिनों के पद-चिह्न उन सखियों को खोज रही हैं जिनके साथ बड़ी होती फैली थी गंगा के मैदानों तक उसकी यादों में घुल रही हैं मलयानिल की हवाएँ जबकि नदियाँ मृत पड़ी हैं उसकी राहों में नदियों के कंकाल बटोरती मौत की ओर अग्रसर है धरती वह ले जा रही …
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पीत कमल | नन्दकिशोर आचार्य जल ही जल की नीली-दर-नीली गहराई के नीचे जमे हुए काले दलदल ही दलदल में अपनी ही पूँछ पर सर टिका कर सो रहा था वह : उचटा अचानक भूला हुआ कुछ कहीं जैसे सुगबुगाने लगे। कुछ देर उन्मन, याद करता-सा उसी बिसरी राग की धुन जल के दबावों में कहीं घुटती हुई एक-एक कर लगीं खुलने सलवटें सारी तरंग-सी व्याप गयी जल में : अपनी ही पूँछ के बल खड़ा …
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उनका जीवन | अनुपम सिंह ख़ाली कनस्तर-सा उदास दिन बीतता ही नहीं रात रज़ाइयों में चीख़ती हैं कपास की आत्माएँ जैसे रुइयाँ नहीं आत्माएँ ही धुनी गई हों गहरी होती बिवाइयों में झलझलाता है नर्म ख़ून किसी चूल्हे की गर्म महक लाई है पछुआ बयार अंतड़ियों की बेजान ध्वनियों से फूट जाती है नकसीर भूख और भोजन के बीच ही वे लड़ रहे हैं लड़ाई बाइस्कोप की रील-सा बस! यहीं उलझ गय…
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लेकर सीधा नारा | शमशेर बहादुर सिंह लेकर सीधा नारा कौन पुकारा अंतिम आशाओं की संध्याओं से? पलकें डूबी ही-सी थीं— पर अभी नहीं; कोई सुनता-सा था मुझे कहीं; फिर किसने यह, सातों सागर के पार एकाकीपन से ही, मानो—हार, एकाकी उठ मुझे पुकारा कई बार? मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल जीवन; कण-समूह में हूँ मैं केवल एक कण। —कौन सहारा! मेरा कौन सहारा!…
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आज़ादी अभी अधूरी है- सच है यह बात समझ प्यारे। कुछ सुविधाओं के टुकड़े खा- मत नौ-नौ बाँस उछल प्यारे। गोरे गैरों का जुल्म था कल अब सितम हमारे अपनों का ये कुछ भी कहें, पर देश बना नहीं भीमराव के सपनों का। एक डाल ही क्यों? एक फूल ही क्‍यों? सारा उद्यान बदल प्यारे। आज़ादी अभी अधूरी है। सच है ये बात समझ प्यारे। है जिसका लहू मयखाने में वो वसर आज तसना-लव है …
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मैंने देखा | ज्योति पांडेय मैंने देखा, वाष्प को मेघ बनते और मेघ को जल। पैरों में पृथ्वी पहन उल्काओं की सँकरी गलियों में जाते उसे मैंने देखा। वह नाप रहा था जीवन की परिधि। और माप रहा था मृत्यु का विस्तार; मैंने देखा। वह ताक रहा था आकाश और तकते-तकते अनंत हुआ जा रहा था। वह लाँघ रहा था समुद्र और लाँघते-लाँघते जल हुआ जा रहा था। वह ताप रहा था आग और तपते-त…
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कसौटियाँ | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 'जो एक का सत्य है वही सबका सत्य है' —यह बात बहुत सीधी थी लेकिन वे चीजों पर उलटा विचार करते थे उन्होंने सबके लिए एक आचार—संहिता तैयार की थी लेकिन खुद अपने विशेषाधिकार में जीते थे उनकी कसौटियाँ झाँवें की तरह खुरदरी थीं जिसे वे आदमियों की त्वचा पर रगड़ते थे और इस तरह कसते थे आदमी को आदमी बड़ा था और कसौटियाँ छोटी इस पर…
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ज़िलाधीश | आलोक धन्वा तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो। तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो! एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं हुआ था! तुम क्या सोचते हो संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही रहने दिया जैसी वह राजाओं के ज़माने में थी? यह जो आदमी मेज़ की दूसरी ओर सुन रह है तुम्हें कितने करीब और ध्यान से यह राजा …
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तिरोहित सितार | दामोदर खड़से खूँखार समय के घनघोर जंगल में बहरा एकांत जब देख नहीं पाता अपना आसपास... तब अगली पीढ़ी की देहरी पर कोई तिरोहित सितार अपने विसर्जन की कातर याचना करती है यादों पर चढ़ी धूल हटाने वाला कोई भी तो नहीं होता तब जब आँसू दस्तक देते हैं– बेहिसाब! मकान छोटा होता जाता है और सितार ढकेल दी जाती है कूड़े में आदमी की तरह... सितार के अंतर …
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सीख | बलराज साहनी वैज्ञानिकों का कथन है कि डरे हुए मनुष्य के शरीर से एक प्रकार की बास निकलती है जिसे कुत्ता झट सूँघ लेता है और काटने दौड़ता है। और अगर आदमी न डरे तो कुत्ता मुँह खोल मुस्कुराता, पूँछ हिलाता मित्र ही नहीं, मनुष्य का ग़ुलाम भी बन जाता है। तो प्यारे! अगर जीने की चाह है, जीवन को बदलने की चाह है तो इस तत्व से लाभ उठाएँ, इस मंत्र की महिमा गा…
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कुछ बन जाते हैं | उदय प्रकाश कुछ बन जाते हैं तुम मिसरी की डली बन जाओ मैं दूध बन जाता हूँ तुम मुझमें घुल जाओ। तुम ढाई साल की बच्ची बन जाओ मैं मिसरी घुला दूध हूँ मीठा मुझे एक साँस में पी जाओ। अब मैं मैदान हूँ तुम्हारे सामने दूर तक फैला हुआ। मुझमें दौड़ो। मैं पहाड़ हूँ। मेरे कंधों पर चढ़ो और फिसलो । मैं सेमल का पेड़ हूँ मुझे ज़ोर-ज़ोर से झकझोरो और मेर…
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सूर्य ढलता ही नहीं | रामदरश मिश्र | आरती जैन चाहता हूँ, कुछ लिखूँ, पर कुछ निकलता ही नहीं है दोस्त, भीतर आपके कोई विकलता ही नहीं है! आप बैठे हैं अंधेरे में लदे टूटे पलों से बंद अपने में अकेले, दूर सारी हलचलों से हैं जलाए जा रहे बिन तेल का दीपक निरन्तर चिड़चिड़ाकर कह रहे- ‘कम्बख़्त, जलता ही नहीं है!’ बदलियाँ घिरतीं, हवाएँ काँपती, रोता अंधेरा लोग गिरत…
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टेढ़ी कमर की औरतें | ऐश्वर्य विजय अमृत राज छः-सात साल की लड़कियाँ छोटे भाइयों/बड़े भाई के बच्चे के साथ/ सोलह साल की सालभर पुरानी कन्याएँ अपने बच्चे/जेठानी के बच्चे के साथ चालीस-साठ की दादी/नानी कमर एक तरफ निकालकर बच्चे को लटकाए कुल्हे की हड्डी से, हो जाती हैं पेड़ के किसी टेढ़े तने सी तिरछी, और ठोंस, किसी पुरानी सभ्यता की मूर्ति सी, जो टिकी-बची हो हर मौ…
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क़िले में बच्चे | नरेश सक्सेना क़िले के फाटक खुले पड़े हैं और पहरेदार गायब ड्योढ़ी में चमगादड़ें दीवाने ख़ास में जाले और हरम बेपर्दा हैं सुल्तान दौड़ो! आज किले में भर गए हैं बच्चे उन्होंने तुम्हारी बुर्जियों, मेहराबों, खंभों और कंगूरों पर लिख दिए हैं अपने नाम कक्षाएँ और स्कूल के पते अब वे पूछ रहे हैं सवाल कि सुल्तान के घर का इतना बड़ा दरवाज़ा उसकी इतन…
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चुनाव की चोट | काका हाथरसी हार गए वे, लग गई इलेक्शन में चोट। अपना अपना भाग्य है, वोटर का क्या खोट? वोटर का क्या खोट, ज़मानत ज़ब्त हो गई। उस दिन से ही लालाजी को ख़ब्त हो गई॥ कह ‘काका’ कवि, बर्राते हैं सोते सोते। रोज़ रात को लें, हिचकियाँ रोते रोते॥द्वारा Nayi Dhara Radio
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जो कुछ देखा-सुना, समझा, लिख दिया | निर्मला पुतुल बिना किसी लाग-लपेट के तुम्हें अच्छा लगे, ना लगे, तुम जानो चिकनी-चुपड़ी भाषा की उम्मीद न करो मुझसे जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते मेरी भाषा भी रूखड़ी हो गई है मैं नहीं जानती कविता की परिभाषा छंद, लय, तुक का कोई ज्ञान नहीं मुझे और न ही शब्दों और भाषाओं में है मेरी पकड़ घर-गृहस्थी सँभालते लड़ते अपने …
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जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे | विनोद कुमार शुक्ल जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊँगा। एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर नदी जैसे लोगों से मिलने नदी किनारे जाऊँगा कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब असंख्य पेड़ खेत कभी नहीं आएँगे मेरे घर खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा। जो लगात…
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बारिश के काँधे पर सिर रखता हूँ | शहंशाह आलम पीड़ा में पेड़ जब दुःख बतियाते हैं दूसरे पेड़ से मैं बारिश के काँधे पर सिर रखता हूँ अपना आदमी बमुश्किल दूसरे का दुःख सुनना पसंद करता है बारिश लेकिन मेरा दुखड़ा सुनने ठहर जाती है कभी खिड़की के पास कभी दरवाज़े पर तो कभी ओसारे में कवि होना कितना कठिन है आज के समय में और गिरहकट होना कितना आसान काम है हत्यारा …
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एक माँ की बेबसी | कुँवर नारायण न जाने किस अदृश्य पड़ोस से निकल कर आता था वह खेलने हमारे साथ— रतन, जो बोल नहीं सकता था खेलता था हमारे साथ एक टूटे खिलौने की तरह देखने में हम बच्चों की ही तरह था वह भी एक बच्चा। लेकिन हम बच्चों के लिए अजूबा था क्योंकि हमसे भिन्न था। थोड़ा घबराते भी थे हम उससे क्योंकि समझ नहीं पाते थे उसकी घबराहटों को, न इशारों में कही …
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एक आश्वस्ति - हल्की फुलकी | प्रेम वत्स एक हल्का घुला हुआ गुलाबीपन पंखुरियों की भाँति चिपक-सा जाता है उसके हल्के रोंयेदार गालों के दोनों उट्ठलों से जो हल्का-सा भी अप्रत्याशित होने पर उठ खड़े होते हैं खरगोशी कान जैसे प्रेम में अक्सर उसे भी तुम प्रेम ही कहो जब वह अपनी ठुड्ढी पर तड़के आए हल्के नर्म बालों को वजह-बेवजह अपनी उंगलियों से पुचकारता रहता है औ…
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अम्मा बचपन को लौट रही है | अजेय जुगरान उठने को सहारा चाहे अम्मा बचपन को लौट रही है। चलने को सहारा चाहे अम्मा छुटपन को लौट रही है। बैठने को सहारा चाहे अम्मा शिशुपन को लौट रही है। ज़िद्द से न किनारा पाए अम्मा बालपन को लौट रही है। खाते खाना गिराए अम्मा बचपन को लौट रही है। सोने को टी वी चलाए अम्मा छुटपन को लौट रही है। नितकर्म को टालती जाए अम्मा शिशुपन …
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भूखदान | महबूब शांत अंधेरे सन्नाटे के बीच चीखती गुजरती एक आवाज़ लोहे के लोहे से टकराने की या उस भूखे पेट के गुर्राने की जो लेटा है उसी लोहे के सड़क किनारे किसी भिनभिनाती-सी जगह पर खेल रही हैं कुछ मक्खियाँ उसके मुख पर जैसे वो जानती हों कि गरीब यहाँ सिर्फ खेलने की चीज है इस बीच कुछ लोग गुज़रे उधर से उसे निहारते हुए कोई हँसा कोई मुस्कुराया किसी को घृणा …
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यह कैसी विवशता है? | कुँवर नारायण यह कैसी विवशता है— किसी पर वार करो वह हँसता रहता या विवाद करता। यह कैसी पराजय है— कहीं घाव करें रक्त नहीं केवल मवाद बहता। अजीब वक़्त है— बिना लड़े ही एक देश का देश स्वीकार करता चला जाता अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता! कुछ तो फ़र्क़ बचता धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में— कोई तो हार-जीत के नियमों में स्वाभिमान के अर्थ को फिर स…
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क्या आपको प्रेम पसंद है ? | श्रद्धा उपाध्याय मैं पहले भी खो गई थी एक खाई की गहराई के भय में मैं नहीं सुन पाई थी झरने का संगीत शोकगीत लिखने की व्यस्तता में सूरज से आँख ना मिला पाने की निराशा में मैंने फोड़ी ही अपनी आँखें कृत्रिम रौशनियों को घूरकर अतीत के घाव जिन पर लगनी थी समय की मरहम उनको लेकर बेवक्त भागी और तोड़े अपने पैर क्या मैं हमेशा मुँह धोउंगी…
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