सजल है कितना सवेरा - महादेवी वर्मा
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महादेवीजी का शब्दों का चुनाव तो विलक्षण था ही परन्तु कविता के माध्यम से एक रंग बिरंगा चित्र बना देने की उनकी शक्ति अतुलनीय थी
उनकी कविताओं में एक अलग ही सम्मोहन शक्ति है जो पाठकों और श्रोताओं को अपनी ओर आकर्षित कर एक मायानगरी में ले जाती है जहां आप भावनाओं की निर्झरिणी में गोते लगाते रहने के लिए विवश हो जाते हैं
सजल है कितना सवेरा
गहन तम में जो कथा इसकी न भूला
अश्रु उस नभ के, चढ़ा शिर फूल फूला
झूम-झुक-झुक कह रहा हर श्वास तेरा
राख से अंगार तारे झर चले हैं
धूप बंदी रंग के निर्झर खुले हैं
खोलता है पंख रूपों में अंधेरा
कल्पना निज देखकर साकार होते
और उसमें प्राण का संचार होते
सो गया रख तूलिका दीपक चितेरा
अलस पलकों से पता अपना मिटाकर
मृदुल तिनकों में व्यथा अपनी छिपाकर
नयन छोड़े स्वप्न ने खग ने बसेरा
ले उषा ने किरण अक्षत हास रोली
रात अंकों से पराजय राख धो ली
राग ने फिर साँस का संसार घेरा
स्रोत
पुस्तक : संधिनी
रचनाकार : महादेवी वर्मा
प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
संस्करण : 2012
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