Maine Dekha | Jyoti Pandey
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मैंने देखा | ज्योति पांडेय
मैंने देखा,
वाष्प को मेघ बनते
और मेघ को जल।
पैरों में पृथ्वी पहन
उल्काओं की सँकरी गलियों में जाते उसे
मैंने देखा।
वह नाप रहा था
जीवन की परिधि।
और माप रहा था
मृत्यु का विस्तार;
मैंने देखा।
वह ताक रहा था आकाश
और तकते-तकते
अनंत हुआ जा रहा था।
वह लाँघ रहा था समुद्र
और लाँघते-लाँघते
जल हुआ जा रहा था।
वह ताप रहा था आग
और तपते-तपते
पिघला जा रहा था;
मैंने देखा।
देखा मैंने,
अर्थहीन संक्रमणों को मुखर होते।
अहम क्रांतियों को मौन में घटते
मैंने देखा।
संज्ञा को क्रिया, और
सर्वनाम को विशेषण में बदलते
देखा मैंने।
सब देखते हुए भोगा मैंने—
‘देख पाने का सुख’
सब देखते हुए मैंने जाना—
बिना आँखों से देखे दृश्य,
बिना कानों के सुना संगीत,
बिना जीभ के लिया गया स्वाद
और बिना बुद्धि के जन्मे सच
जीवितता के मोक्ष हैं।
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