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Amrapali - Anamika

6:05
 
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आम्रपाली - अनामिका

था आम्रपाली का घर
मेरी ननिहाल के उत्तर !
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिए हाथ
गुज़रती है वैशाली के खण्डहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली ।

अगल-बगल नहीं देखती,
चलती है सीधी मानो ख़ुद से बातें करती
शरदकाल में जैसे
(कमण्डल-वमण्डल बनाने की ख़ातिर)
पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी,
खदर-बदर है मेरे भीतर का
हहाता हुआ सत !

सूखती-टटाती हुई
हड्डियाँ मेरी
मरे कबूतर-जैसी
इधर-उधर फेंकी हुई मुझमें
सोचती हूँ क्या वो मैं ही थी
नगरवधू-बज्जिसँघ के बाहर के लोग भी जिसकी
एक झलक को तरसते थे ?
ये मेरे सन-से सफ़ेद बाल
थे कभी भौंरे के रँग के कहते हैं लोग,
नीलमणि थीं मेरी आँखें
बेले के फूलों-सी झक सफ़ेद दन्तपँक्ति :
खण्डहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो !
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,
बुद्ध को घर न्योतकर
अपने रथ से जब मैं लौट रही थी

कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से
टकरा गया मेरे रथ का
धुर से धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,
बोले वे चीख़कर —
“जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती है ?”

“आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !”
“जे आम्रपाली !
सौ हजार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !”
“आयपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देने वाली !”
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार
चटकाने लगे उँगलियाँ :
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,
बुद्ध को जीतें !’
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,
उन्हें घर न्योता,
पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा
और कहा ‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,
बाक़ी सब ठह जाएगा...’
“तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...
राख की इच्छामती,
राख की गँगा,
राख की कृष्णा-कावेरी,
गरम राख़ की ढेरी
यह काया
बहती रही
सदियों
इस तट से उस तट तक !
टिमकता रहा एक अँगारा,
तिरता रहा राख़ की इस नदी पर
बना-ठना

ठना-बना
तैरा लगातार !

तैरी सोने की तरी !
राख़ की इच्छामती !
राख़ की गंगा !
राख़ की कृष्णा-कावेरी ।

झुर्रियों की पोटली में
बीज थोड़े-से सुरक्षित हैं
वो ही मैं डालती जाती हूँ
अब इधर-उधर !
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,
बाक़ी खिल जाते हैं जिधर-तिधर
चुटकी-भर हरियाली बनकर ।”

सुनती हूँ मैं गौर से आम्रपाली की बातें
सोचती हूँ कि कमण्डल या लौकी या बीजकोष
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !
हरियाली ही बीज का सपना,
रस ही रसायन है !

कमण्डल-वमण्डल बनाने की ख़ातिर
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?
कितनी तो सुन्दर है
हर रूप में दुनिया !

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382 एपिसोडस

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मेरी ननिहाल के उत्तर !
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिए हाथ
गुज़रती है वैशाली के खण्डहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली ।

अगल-बगल नहीं देखती,
चलती है सीधी मानो ख़ुद से बातें करती
शरदकाल में जैसे
(कमण्डल-वमण्डल बनाने की ख़ातिर)
पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी,
खदर-बदर है मेरे भीतर का
हहाता हुआ सत !

सूखती-टटाती हुई
हड्डियाँ मेरी
मरे कबूतर-जैसी
इधर-उधर फेंकी हुई मुझमें
सोचती हूँ क्या वो मैं ही थी
नगरवधू-बज्जिसँघ के बाहर के लोग भी जिसकी
एक झलक को तरसते थे ?
ये मेरे सन-से सफ़ेद बाल
थे कभी भौंरे के रँग के कहते हैं लोग,
नीलमणि थीं मेरी आँखें
बेले के फूलों-सी झक सफ़ेद दन्तपँक्ति :
खण्डहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो !
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,
बुद्ध को घर न्योतकर
अपने रथ से जब मैं लौट रही थी

कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से
टकरा गया मेरे रथ का
धुर से धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,
बोले वे चीख़कर —
“जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती है ?”

“आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !”
“जे आम्रपाली !
सौ हजार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !”
“आयपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देने वाली !”
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार
चटकाने लगे उँगलियाँ :
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,
बुद्ध को जीतें !’
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,
उन्हें घर न्योता,
पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा
और कहा ‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,
बाक़ी सब ठह जाएगा...’
“तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...
राख की इच्छामती,
राख की गँगा,
राख की कृष्णा-कावेरी,
गरम राख़ की ढेरी
यह काया
बहती रही
सदियों
इस तट से उस तट तक !
टिमकता रहा एक अँगारा,
तिरता रहा राख़ की इस नदी पर
बना-ठना

ठना-बना
तैरा लगातार !

तैरी सोने की तरी !
राख़ की इच्छामती !
राख़ की गंगा !
राख़ की कृष्णा-कावेरी ।

झुर्रियों की पोटली में
बीज थोड़े-से सुरक्षित हैं
वो ही मैं डालती जाती हूँ
अब इधर-उधर !
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,
बाक़ी खिल जाते हैं जिधर-तिधर
चुटकी-भर हरियाली बनकर ।”

सुनती हूँ मैं गौर से आम्रपाली की बातें
सोचती हूँ कि कमण्डल या लौकी या बीजकोष
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !
हरियाली ही बीज का सपना,
रस ही रसायन है !

कमण्डल-वमण्डल बनाने की ख़ातिर
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?
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