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सर्वोच्च स्वतन्त्र प्रेम

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सर्वोच्च स्वतन्त्र प्रेम

जॉन पाइपर द्वारा भक्तिमय अध्ययन

“देखो, स्वर्ग और सर्वोच्च स्वर्ग तथा पृथ्वी और जो कुछ उसमें है वह सब तेरे परमेश्वर यहोवा ही का है।

फिर भी यहोवा ने तेरे पूर्वजों को चाहकर उनसे प्रेम किया तथा उनके बाद सब जातियों से बढ़कर

उनके वंशजों को अर्थात् तुमको चुना, जैसा आज भी है।” (व्यवस्थाविवरण 10:14-15)

परमेश्वर का चुनने वाला प्रेम — अर्थात् जिस प्रेम के द्वारा वह अपने लिए लोगों को चुनता है —

पूर्ण रीति से स्वतन्त्र है। यह उसकी असीम बुद्धि द्वारा निर्देशित उसकी असीम प्रसन्नता का अनुग्रहपूर्ण उमड़ना है।

व्यवस्थाविवरण 10:14-15 परमेश्वर के उस हर्ष का वर्णन करता है जिसमें होकर उसने पृथ्वी के सारे लोगों में से इस्राएल को चुना। इन दो बातों पर ध्यान दें।

सबसे पहले, पद 14 और पद 15 के बीच की विषमता पर ध्यान दें। मूसा सम्पूर्ण विश्व पर परमेश्वर के स्वामित्व की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में इस्राएल के चुनाव का वर्णन क्यों करता है? वह पद 14 में क्यों कहता है कि, “स्वर्ग और सर्वोच्च स्वर्ग तथा पृथ्वी और जो कुछ उसमें है वह सब तेरे परमेश्वर यहोवा ही का है” और फिर पद 15 में क्यों कहता है कि “फिर भी उसने तुमको अपने लोग होने के लिए चुना”?

ऐसा प्रतीत होता है कि इसका कारण किसी भी ऐसी धारणा का खण्डन करना है कि इन लोगों को चुनने के लिए परमेश्वर को किसी रीति से विवश किया गया था — अर्थात् मानो उसके चुनाव पर कुछ प्रतिबन्ध थे और उसे उन्हें चुनने के लिए बलपूर्वक विवश किया गया था। यहाँ इस मूर्तिपूजक विचारधारा को भी ध्वस्त किया जा रहा है कि किसी ईश्वर के पास केवल अपने लोगों को ही रख सकने का अधिकार है परन्तु अन्य लोगों को नहीं।

सत्य तो यह है कि यहोवा ही एक मात्र सच्चा परमेश्वर है। विश्व में सब कुछ उसी का है और उसके पास उचित अधिकार है कि वह किसी को भी अपने लोग होने के लिए ले सकता है।

इसलिए इस्राएल के लिए अवर्णनीय अद्भुत सत्य यह है कि परमेश्वर ने उन्हें चुना। वह ऐसा करने के लिए विवश नहीं था। छुटकारा देने के अपने उद्देश्य के अन्तर्गत उसके पास पूर्ण अधिकार था कि वह पृथ्वी पर से किसी को भी चुन ले। या तो सभी को चुन ले। या किसी को भी न चुने।

इसलिए, जब वह स्वयं को “उनका परमेश्वर” कहता है तो उसका अर्थ यह नहीं है कि वह मिस्र के ईश्वरों या कनान के ईश्वरों के समतुल्य है। वह उन ईश्वरों और उनके लोगों का भी स्वामी है। यदि उसको यह भाता तो वह स्वयं के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए पूर्णतः भिन्न लोगों को चुन सकता था।

14 और 15 पद को इस रीति से एक साथ रखने का उद्देश्य परमेश्वर की स्वतन्त्रता और सार्वभौमिक अधिकार और प्रभुता पर बल देना है।

ध्यान देने वाली दूसरी बात (पद 15 में) वह ढंग है जिससे परमेश्वर ने अपनी सम्प्रभु स्वतन्त्रता का उपयोग किया “यहोवा ने तेरे पूर्वजों को चाहकर उनसे प्रेम किया।” अर्थात् “वह तेरे पूर्वजों से प्रेम करने में आनन्दित हुआ।” उसने पूर्वजों से प्रेम करने में आनंद लेने को अपनी स्वतन्त्रता में होकर चुना।

इस्राएल के पूर्वजों के लिए परमेश्वर का प्रेम स्वतन्त्र और करुणामय था और वह पूर्वजों के यहूदी होने या उनके गुणों में से किसी भी बात द्वारा विवश नहीं हुआ था।

यह हमारे लिए भी एक सीख है। हमारे लिए जो ख्रीष्ट में विश्वासी हैं, परमेश्वर ने हमें भी उतनी ही स्वतन्त्रता से चुना है। इस कारण से नहीं कि हमारे अन्दर कोई विशेष बात है परन्तु केवल इसलिए कि परमेश्वर को यही करना भाया।

--- Send in a voice message: https://podcasters.spotify.com/pod/show/marg-satya-jeevan/message
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फिर भी यहोवा ने तेरे पूर्वजों को चाहकर उनसे प्रेम किया तथा उनके बाद सब जातियों से बढ़कर

उनके वंशजों को अर्थात् तुमको चुना, जैसा आज भी है।” (व्यवस्थाविवरण 10:14-15)

परमेश्वर का चुनने वाला प्रेम — अर्थात् जिस प्रेम के द्वारा वह अपने लिए लोगों को चुनता है —

पूर्ण रीति से स्वतन्त्र है। यह उसकी असीम बुद्धि द्वारा निर्देशित उसकी असीम प्रसन्नता का अनुग्रहपूर्ण उमड़ना है।

व्यवस्थाविवरण 10:14-15 परमेश्वर के उस हर्ष का वर्णन करता है जिसमें होकर उसने पृथ्वी के सारे लोगों में से इस्राएल को चुना। इन दो बातों पर ध्यान दें।

सबसे पहले, पद 14 और पद 15 के बीच की विषमता पर ध्यान दें। मूसा सम्पूर्ण विश्व पर परमेश्वर के स्वामित्व की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में इस्राएल के चुनाव का वर्णन क्यों करता है? वह पद 14 में क्यों कहता है कि, “स्वर्ग और सर्वोच्च स्वर्ग तथा पृथ्वी और जो कुछ उसमें है वह सब तेरे परमेश्वर यहोवा ही का है” और फिर पद 15 में क्यों कहता है कि “फिर भी उसने तुमको अपने लोग होने के लिए चुना”?

ऐसा प्रतीत होता है कि इसका कारण किसी भी ऐसी धारणा का खण्डन करना है कि इन लोगों को चुनने के लिए परमेश्वर को किसी रीति से विवश किया गया था — अर्थात् मानो उसके चुनाव पर कुछ प्रतिबन्ध थे और उसे उन्हें चुनने के लिए बलपूर्वक विवश किया गया था। यहाँ इस मूर्तिपूजक विचारधारा को भी ध्वस्त किया जा रहा है कि किसी ईश्वर के पास केवल अपने लोगों को ही रख सकने का अधिकार है परन्तु अन्य लोगों को नहीं।

सत्य तो यह है कि यहोवा ही एक मात्र सच्चा परमेश्वर है। विश्व में सब कुछ उसी का है और उसके पास उचित अधिकार है कि वह किसी को भी अपने लोग होने के लिए ले सकता है।

इसलिए इस्राएल के लिए अवर्णनीय अद्भुत सत्य यह है कि परमेश्वर ने उन्हें चुना। वह ऐसा करने के लिए विवश नहीं था। छुटकारा देने के अपने उद्देश्य के अन्तर्गत उसके पास पूर्ण अधिकार था कि वह पृथ्वी पर से किसी को भी चुन ले। या तो सभी को चुन ले। या किसी को भी न चुने।

इसलिए, जब वह स्वयं को “उनका परमेश्वर” कहता है तो उसका अर्थ यह नहीं है कि वह मिस्र के ईश्वरों या कनान के ईश्वरों के समतुल्य है। वह उन ईश्वरों और उनके लोगों का भी स्वामी है। यदि उसको यह भाता तो वह स्वयं के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए पूर्णतः भिन्न लोगों को चुन सकता था।

14 और 15 पद को इस रीति से एक साथ रखने का उद्देश्य परमेश्वर की स्वतन्त्रता और सार्वभौमिक अधिकार और प्रभुता पर बल देना है।

ध्यान देने वाली दूसरी बात (पद 15 में) वह ढंग है जिससे परमेश्वर ने अपनी सम्प्रभु स्वतन्त्रता का उपयोग किया “यहोवा ने तेरे पूर्वजों को चाहकर उनसे प्रेम किया।” अर्थात् “वह तेरे पूर्वजों से प्रेम करने में आनन्दित हुआ।” उसने पूर्वजों से प्रेम करने में आनंद लेने को अपनी स्वतन्त्रता में होकर चुना।

इस्राएल के पूर्वजों के लिए परमेश्वर का प्रेम स्वतन्त्र और करुणामय था और वह पूर्वजों के यहूदी होने या उनके गुणों में से किसी भी बात द्वारा विवश नहीं हुआ था।

यह हमारे लिए भी एक सीख है। हमारे लिए जो ख्रीष्ट में विश्वासी हैं, परमेश्वर ने हमें भी उतनी ही स्वतन्त्रता से चुना है। इस कारण से नहीं कि हमारे अन्दर कोई विशेष बात है परन्तु केवल इसलिए कि परमेश्वर को यही करना भाया।

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