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अपने आनन्द के लिए यीशु की ओर देखें।

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“वे अपने सब काम मनुष्यों को दिखाने के लिए करते हैं . . .। और भोजों में सम्मानित स्थान तथा आराधनालयों में मुख्य आसन, और बाज़ारों में आदर-सत्कार पाना तथा लोगों से रब्बी कहलाना उन्हें प्रिय लगता है।” (मत्ती 23:5-7)

स्वाभिमान की इच्छा आत्म-अनुमोदन की लालसा करती है। यदि आत्म-निर्भर होने के अनुभव से हमें सुख प्राप्त होता, तो हम तब तक सन्तुष्ट नहीं होंगे जब तक अन्य लोग हमारी आत्म-निर्भरता को देखकर उसकी सराहना न करें।

इसलिए यीशु मत्ती 23:5 में शास्त्रियों और फरीसियों का वर्णन कुछ इस प्रकार से करता है कि, “वे अपने सब काम मनुष्यों को दिखाने के लिए करते हैं।”

यह तो बड़ी विडम्बना की बात है। क्या आपको नहीं लगता कि आत्म-निर्भरता को तो घमण्डी व्यक्ति के दूसरों द्वारा सराहे जाने की आवश्यकता से ही मुक्त कर देना चाहिए? “आत्म-निर्भर होने” का अर्थ तो यही है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस तथाकथित आत्म-निर्भरता में एक खोखलापन है।

हमारे अहं (self) का निर्माण तो स्वयं को तृप्त करने या स्वयं पर निर्भर होने के लिए नहीं किया गया था। यह अहं कभी भी आत्म-निर्भर हो ही नहीं सकता है। हम परमेश्वर नहीं है। पर हम परमेश्वर के स्वरूप में अवश्य हैं। और जो बात हमें परमेश्वर के “जैसा” बनाती है, वह हमारी आत्म-निर्भरता नहीं है। हम तो परछाई और गूँज मात्र हैं। इसलिए हमारे प्राण में सर्वदा एक खोखलापन रहेगा जो स्वयं के संसाधनों के द्वारा तृप्त होने के लिए संघर्ष करता रहेगा ।

दूसरों से प्रशंसा पाने की यह खोखली इच्छा घमण्ड की विफलता और परमेश्वर के निरन्तर बने रहने वाले अनुग्रह पर विश्वास के अभाव की ओर संकेत करती है। यीशु ने मनुष्यों से आदर पाने की इस इच्छा के कुरूप प्रभाव को देखा था। और उसने यूहन्ना 5:44 में इसके विषय में कहा, “तुम कैसे विश्वास कर सकते हो, जब कि तुम स्वयं एक दूसरे से आदर चाहते हो और जो आदर अद्वैत परमेश्वर की ओर से है, पाना नहीं चाहते?” इसका उत्तर है, कि आप विश्वास कर ही नहीं सकते हैं। अन्य लोगों से आदर पाने की इच्छा विश्वास करने को असम्भव बना देती है। परन्तु ऐसा क्यों है?

क्योंकि विश्वास स्वयं से हटकर परमेश्वर की ओर देखता है। विश्वास का अर्थ है कि यीशु में परमेश्वर आपके लिए जो कुछ भी है, उसी में सन्तुष्ट होना। और यदि आप अपनी इच्छा की पूर्ति को अन्य लोगों की प्रशंसा से ही प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप यीशु को अस्वीकार कर देंगे। क्योंकि वह तो ऐसा है ही नहीं । वह तो अपने पिता की महिमा के लिए जीता है। और हमें भी ऐसा ही करने के लिए बुलाता है।

परन्तु यदि आप सन्तुष्टि के स्रोत के रूप में स्वयं से फिरेंगे (अर्थात् पश्चात्ताप करेंगे), और जो कुछ भी परमेश्वर हमारे लिए है, उसका आनन्द उठाने के लिए आप यीशु के पास आएँगे (अर्थात् विश्वास करेंगे), तो खोखलेपन की इच्छा के स्थान पर एक परिपूर्णता होगी — जिसे यीशु “अनन्त जीवन के लिए उमड़ने वाले जल का सोता” कहता है (यूहन्ना 4:14)।

--- Send in a voice message: https://podcasters.spotify.com/pod/show/marg-satya-jeevan/message

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स्वाभिमान की इच्छा आत्म-अनुमोदन की लालसा करती है। यदि आत्म-निर्भर होने के अनुभव से हमें सुख प्राप्त होता, तो हम तब तक सन्तुष्ट नहीं होंगे जब तक अन्य लोग हमारी आत्म-निर्भरता को देखकर उसकी सराहना न करें।

इसलिए यीशु मत्ती 23:5 में शास्त्रियों और फरीसियों का वर्णन कुछ इस प्रकार से करता है कि, “वे अपने सब काम मनुष्यों को दिखाने के लिए करते हैं।”

यह तो बड़ी विडम्बना की बात है। क्या आपको नहीं लगता कि आत्म-निर्भरता को तो घमण्डी व्यक्ति के दूसरों द्वारा सराहे जाने की आवश्यकता से ही मुक्त कर देना चाहिए? “आत्म-निर्भर होने” का अर्थ तो यही है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस तथाकथित आत्म-निर्भरता में एक खोखलापन है।

हमारे अहं (self) का निर्माण तो स्वयं को तृप्त करने या स्वयं पर निर्भर होने के लिए नहीं किया गया था। यह अहं कभी भी आत्म-निर्भर हो ही नहीं सकता है। हम परमेश्वर नहीं है। पर हम परमेश्वर के स्वरूप में अवश्य हैं। और जो बात हमें परमेश्वर के “जैसा” बनाती है, वह हमारी आत्म-निर्भरता नहीं है। हम तो परछाई और गूँज मात्र हैं। इसलिए हमारे प्राण में सर्वदा एक खोखलापन रहेगा जो स्वयं के संसाधनों के द्वारा तृप्त होने के लिए संघर्ष करता रहेगा ।

दूसरों से प्रशंसा पाने की यह खोखली इच्छा घमण्ड की विफलता और परमेश्वर के निरन्तर बने रहने वाले अनुग्रह पर विश्वास के अभाव की ओर संकेत करती है। यीशु ने मनुष्यों से आदर पाने की इस इच्छा के कुरूप प्रभाव को देखा था। और उसने यूहन्ना 5:44 में इसके विषय में कहा, “तुम कैसे विश्वास कर सकते हो, जब कि तुम स्वयं एक दूसरे से आदर चाहते हो और जो आदर अद्वैत परमेश्वर की ओर से है, पाना नहीं चाहते?” इसका उत्तर है, कि आप विश्वास कर ही नहीं सकते हैं। अन्य लोगों से आदर पाने की इच्छा विश्वास करने को असम्भव बना देती है। परन्तु ऐसा क्यों है?

क्योंकि विश्वास स्वयं से हटकर परमेश्वर की ओर देखता है। विश्वास का अर्थ है कि यीशु में परमेश्वर आपके लिए जो कुछ भी है, उसी में सन्तुष्ट होना। और यदि आप अपनी इच्छा की पूर्ति को अन्य लोगों की प्रशंसा से ही प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप यीशु को अस्वीकार कर देंगे। क्योंकि वह तो ऐसा है ही नहीं । वह तो अपने पिता की महिमा के लिए जीता है। और हमें भी ऐसा ही करने के लिए बुलाता है।

परन्तु यदि आप सन्तुष्टि के स्रोत के रूप में स्वयं से फिरेंगे (अर्थात् पश्चात्ताप करेंगे), और जो कुछ भी परमेश्वर हमारे लिए है, उसका आनन्द उठाने के लिए आप यीशु के पास आएँगे (अर्थात् विश्वास करेंगे), तो खोखलेपन की इच्छा के स्थान पर एक परिपूर्णता होगी — जिसे यीशु “अनन्त जीवन के लिए उमड़ने वाले जल का सोता” कहता है (यूहन्ना 4:14)।

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