जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी छोटा जादूगर, Chhota Jadugar - Story Written By Jaishankar Prasad
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कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लडक़ा चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा-‘‘क्यों जी, तुमने इसमं क्या देखा?’’ ‘‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’’-उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी। मैंने पूछा-‘‘और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।’’ ‘‘नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।’’ मैंने कहा-‘‘तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ।’’ मैंने मन-ही-मन कहा-‘‘भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।’’ उसने कहा-‘‘वहाँ जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाय।’’ मैंने सहमत होकर कहा-‘‘तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाय।’’ उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया। मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-‘‘तुम्हारे और कौन हैं?’’ ‘‘माँ और बाबूजी।’’ ‘‘उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?’’ ‘‘बाबूजी जेल में है।’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘देश के लिए।’’-वह गर्व से बोला। ‘‘और तुम्हारी माँ?’’ ‘‘वह बीमार है।’’ ‘‘और तुम तमाशा देख रहे हो?’’ उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा-‘‘तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।’’ मैं आश्चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा। ‘‘हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार है; इसलिए मैं नहीं गया।’’ ‘‘कहाँ?’’ ‘‘जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।’’ मैंने दीर्घ निश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा-‘‘अच्छा चलो, निशाना लगाया जाय।’’ हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट ख़रीदकर उस लड़के को दिये। वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद ख़ाली नहीं गया। देखनेवाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया; लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रुमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिए गये। लड़के ने कहा-‘‘बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ।’’ वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा-‘‘इतनी जल्दी आँख बदल गयी।’’ मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्मात् किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा-‘‘बाबूजी!’’ मैंने पूछा-‘‘कौन?’’ ‘‘मैं हूँ छोटा जादूगर।’’
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