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चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी हीरे का हार, Heere Ka Haar - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri

18:18
 
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आज सवेरे ही से गुलाबदेई काम में लगी हुई है। उसने अपने मिट्टी के घर के आँगन को गोबर से लीपा है, उस पर पीसे हुए चावल से मंडन माँडे हैं। घर की देहली पर उसी चावल के आटे से लीकें खैंची हैं और उन पर अक्षत और बिल्‍वपत्र रक्‍खे हैं। दूब की नौ डालियाँ चुन कर उनने लाल डोरा बाँध कर उसकी कुलदेवी बनाई है और हर एक पत्ते के दूने में चावल भर कर उसे अंदर के घर में, भींत के सहारे एक लकड़ी के देहरे में रक्‍खा है। कल पड़ोसी से माँग कर गुलाबी रंग लाई थी उससे रंगी हुई चादर बिचारी को आज नसीब हुई है। लठिया टेकती हुई बुढ़ि‍या माता की आँखें यदि तीन वर्ष की कंगाली और पुत्र वियोग से और डेढ़ वर्ष की बीमारी की दुखिया के कुछ आँखें और उनमें ज्‍योति बाकी रही हो तो - दरवाजे पर लगी हुई हैं। तीन वर्ष के पतिवियोग और दारिद्र्य की प्रबल छाया से रात-दिन के रोने से पथराई और सफेद हुई गुलाबदेई की आँखों पर आज फिर यौवन की ज्‍योति और हर्ष के लाल डोरे आ गए हैं। और सात वर्ष का बालक हीरा, जिसका एकमात्र वस्‍त्र कुरता खार से धो कर कल ही उजाला कर दिया गया है, कल ही से पड़ोसियों से कहता फिर रहा है कि मेरा चाचा आवेगा। बाहर खेतों के पास लकड़ी की धमाधम सुनाई पड़ने लगी। जान पड़ता है कि कोई लँगड़ा आदमी चला आ रहा है जिसके एक लकड़ी की टाँग है। दस महीने पहिले एक चिट्ठी आई थी जिसे पास के गाँव के पटवारी ने पढ़ कर गुलाबदेई और उसकी सास को सुनाया था। उसें लिखा था कि लहनासिंह की टाँग चीन की लड़ाई में घायल हो गई है और हांगकांग के अस्पताल में उसकी टाँग काट दी गई है। माता के वात्‍सल्‍यमय और पत्‍नी के प्रेममय हृदय पर इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि बेचारियों ने चार दिन रोटी नहीं खाई थी। तो भी - अपने ऊपर सत्‍य आपत्ति आती हुई और आई हुई जान कर भी हम लोग कैसे आँखें मीच लेते हैं और आशा की कच्‍ची जाली में अपने को छिपा कर कवच से ढका हुआ समझते हैं! - वे कभी-कभी आशा किया करती थीं कि दोनों पैर सही सलामत ले कर लहनासिंह घर आ जाय तो कैसा! और माता अपनी बीमारी से उठते ही पीपल के नीचे के नाग के यहाँ पंचपकवान चढ़ाने गई थी कि 'नाग बाबा! मेरा बेटा दोनों पैरों चलता हुआ राजी-खुशी मेरे पास आवे।' उसी दिन लौटते हुए उसे एक सफेद नाग भी दीखा था जिससे उसे आशा हुई थी कि मेरी प्रार्थना सुन ली गई। पहले पहले तो सुखदेई को ज्‍वर की बेचैनी में पति की टाँग - कभी दहनी और कभी बाईं - किसी दिन कमर के पास से और किसी दिन पिंडली के पास से और फिर कभी टखने के पास से कटी हुई दिखाई देती परंतु फिर जब उसे साधारण स्‍वप्‍न आने लगे तो वह अपने पति को दोनों जाँघों पर खड़ा देखने लगी। उसे यह न जान पड़ा कि मेरे स्‍वस्‍थ मस्तिष्‍क की स्‍वस्‍थ स्‍मृति को अपने पति का वही रूप याद है जो सदा देखा है, परंतु वह समझी की किसी करामात से दोनों पैर चंगे हो गए हैं।
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