चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी कहानी धर्मपारायण रीछ, Dharmparayan Reechh - Story Written By Chandradhar Sharma Guleri
MP3•एपिसोड होम
Manage episode 232915093 series 1399468
Sameer Goswami द्वारा प्रदान की गई सामग्री. एपिसोड, ग्राफिक्स और पॉडकास्ट विवरण सहित सभी पॉडकास्ट सामग्री Sameer Goswami या उनके पॉडकास्ट प्लेटफ़ॉर्म पार्टनर द्वारा सीधे अपलोड और प्रदान की जाती है। यदि आपको लगता है कि कोई आपकी अनुमति के बिना आपके कॉपीराइट किए गए कार्य का उपयोग कर रहा है, तो आप यहां बताई गई प्रक्रिया का पालन कर सकते हैं https://hi.player.fm/legal।
सायंकाल हुआ ही चाहता है। जिस प्रकार पक्षी अपना आराम का समय आया देख अपने-अपने खेतों का सहारा ले रहे हैं उसी प्रकार हिंस्र श्वापद भी अपनी अव्याहत गति समझ कर कंदराओं से निकलने लगे हैं। भगवान सूर्य प्रकृति को अपना मुख फिर एक बार दिखा कर निद्रा के लिए करवट लेने वाले ही थे, कि सारी अरण्यानी 'मारा' है, बचाओ, मारा है' की कातर ध्वनि से पूर्ण हो गई। मालूम हुआ कि एक व्याध हाँफता हुआ सरपट दौड़ रहा, और प्रायः दो सौ गज की दूरी पर एक भीषण सिंह लाल आँखें, सीधी पूँछ और खड़ी जटा दिखाता हुआ तीर की तरह पीछे आ रहा है। व्याध की ढीली धोती प्रायः गिर गई है, धनुष-बाण बड़ी सफाई के साथ हाथ से च्युत हो गए हैं, नंगे सिर बिचारा शीघ्रता ही को परमेश्वर समझता हुआ दौड़ रहा है। उसी का यह कातर स्वर था। यह अरण्य भगवती जह्नुतनया और पूजनीया कलिंदनंदनी के पवित्र संगम के समीप विद्यमान है। अभी तक यहाँ उन स्वार्थी मनुष्य रुपी निशाचरों का प्रवेश नहीं हुआ था जो अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक से चौगुना-पँचगुना पा कर भी झगड़ा करते हैं, परंतु वे पशु यहाँ निवास करते थे जो शांतिपूर्वक समस्त अरण्य को बाँट कर अपना-अपना भाग्य आजमाते हुए न केवल धर्मध्वजी पुरुषों की तरह शिश्नोदर परायण ही थे, प्रत्युत अपने परमात्मा का स्मरण करके अपनी निकृष्ट योनि को उन्नत भी कर रहे थे। व्याध, अपने स्वभाव के अनुसार, यहाँ भी उपद्रव मचाने आया था। उसने बंग देश में रोहू और झिलसा मछलियों और 'हासेर डिम' को निर्वंश कर दिया था, बंबई के केकड़े और कछुओं को वह आत्मसात कर चुका था और क्या कहें मथुरा, बृंदावन के पवित्र तीर्थों तक में वह वकवृत्ति और विडालव्रत दिखा चुका था। यहाँ पर सिंह के कोपन बदनाग्नि में उसके प्रायश्चितों का होम होना ही चाहता है। भागने में निपुण होने पर भी मोटी तोंद उसे बहुत कुछ बाधा दे रही है। सिंह में और उसमें अब प्रायः बीस ही तीस गज का अंतर रह गया और उसे पीठ पर सिंह का उष्ण निःश्वास मालूम-सा देने लगा। इस कठिन समस्या में उसे सामने एक बड़ा भारी पेड़ दीख पड़ा। अपचीयमान शक्ति पर अंतिम कोड़ा मार कर वह उस वृक्ष पर चढ़ने लगा और पचासों पक्षी उसकी परिचित डरावनी मूर्ति को पहचान कर अमंगल समझ कर त्राहि-त्राहि स्वर के साथ भागने लगे। ऊपर एक बड़ी प्रबल शाखा पर विराजमान एक भल्लूक को देख कर व्याध के रहे-सहे होश पैंतरा हो गए। नीचे मंत्र-बल से कीलित सर्प की भाँति जला-भुना सिंह और ऊपर अज्ञात कुलशील रीछ। यों कढ़ाई से चूल्हे में अपना पड़ना समझ कर वह र्किकर्तव्यविमूढ़ व्याध सहम गया, बेहोश-सा हो कर टिक गया, 'न ययौ न तस्थो' हो गया। इतने में ही किसी ने स्निग्ध गंभीर निर्घोष मधुर स्वर में कहा - 'अभयं शरणागतस्य! अतिथि देव! ऊपर चले जाइए, पापी व्याध, सदा छल-छिद्र के कीचड़ में पला हुआ, इस अमृत अभय वाणी को न समझ कर वहीं रुका रहा। फिर उसी स्वर ने कहा - 'चले आइए महाराज! चले आइए। यह आपका घर है। आज मेरे बृहस्पति उच्च के हैं जो यह अपवान स्थान आपकी चरनधूलि से पवित्र होता है। इस पापात्मा का आतिथ्य स्वीकार करके इसे उद्धार कीजिए। 'वैश्वदेवांतमापन्नो सोऽतिथिः स्वर्ग संज्ञकः।' पधारिए - यह विष्टर लीजिए, यह पाद्य, यह अर्ध्य, यह मधुपर्क।' पाठक! जानते हो यह मधुर स्वर किसका था? यह उस रीछ का था। वह धर्मात्मा विंध्याचल के पास से इस पवित्र तीर्थ पर अपना काल बिताने आया था। उस धर्मप्राण धर्मैकजीवन ने वंशशत्रु व्याध को हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया; उसके चरणों की धूलि मस्तक से लगाई और उसके लिए कोमल पत्तों का बिछौना कर दिया। विस्मित व्याध भी कुछ आश्वस्त हुआ।
…
continue reading
1786 एपिसोडस