हिमशिला
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।। हिमशिला ।।
एक निर्मल निर्झरणी थी तू,
कैसे बन गयी हिमशिला ।
किधर गयी स्नेह की गर्मी,
ये पाषाण हृदय था कहाँ मिला।
वर्षों पहले जब देखा था,
तू चंचल, कल कल बहती थी।
जोश भरी, मतवाली होकर,
लाखों बातें कहती थी।
ऐसा वेग प्रचंड था तेरा,
कोई बाधा रोक न पाती थी।
तेरी जिजीविषा के सम्मुख,
पर्वत चोटी झुक जाती थी।
निकट तेरे आकर तो मैं भी,
जड़ से चेतन हो जाता था।
तेरी लहरों के गुंजन से,
पूरा अरण्य गुनगुनाता था।
औचक हुआ दिशा परिवर्तन,
तू बह चली किसी और नगर।
कुछ दिन तो राह तकी थी मैंने,
फिर पकड़ी एक नयी डगर।
स्मृतियाँ थीं जो शेष रही,
अलग अलग जो पाँव मुड़े ।
चक्र समय का घूमा और,
जीवन में नव अध्याय जुड़े।
क्या हुआ इस अंतराल में,
जो ऊष्मा हिय की लुप्त हुई।
जीवन का पर्याय कभी थी,
अब जीने की इच्छा सुप्त हुई।
अब देख तेरा ये रूप मेरे
टीस हृदय में उठती है।
स्वच्छंद, सजीव, सतेज वो धारा,
निर्जीव, निस्तेज यूँ घुटती है।
एक समय मेरे शब्दों से,
अंतर्मन था तेरा पिघलता।
आज मेरी कविताओं से भी,
मिलती नहीं मुझे सफलता।
तूने ही तो दिया था मुझको,
अनंत वेदना का उपहार।
कहीं ये ज्वाला ही तो नहीं थी,
तेरे अस्तित्व का मुख्य आधार।
तेरी दी अग्नि को मैं अब भी,
निज हृदय बसाये रखता हूँ।
उसी पावक के साथ आज मैं,
आलिंगनबद्ध तुझे करता हूँ।
आज संतप्त हृदय अनल
ये हिमशिला पिघलायेगी।
या तेरे तुषार तमस तले,
मेरी ज्योति बुझ जायेगी।
~ विवेक (सर्व अधिकार सुरक्षित)
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