एहसास-ए-मोहब्बत (Ehsas-A-Mohabbat)
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एहसास-ए- मोहब्बत हर रोंया गुदगुदाता है।
तन्हाई में भी मुस्कान के मोती सजाता है।
चंद तारीखों में न सीमित कर मोहब्बत को।
ये जज़्बा हर लम्हे में पैबस्त हुआ जाता है।
इश्क़ फैले तो पूरी कायनात में न समाये।
और चाहे तो छोटे से दिल में सिमट आता है।
जिसने की; करामात-ए-मोहब्बत वही जाने।
की कैसे ये एक साथ हँसाता और रुलाता है।
न रहे बाकी कोई और ख्वाहिश इस दिल में।
दौलत-ए-इश्क़ हो तो न कुछ और लुभाता है।
महक उठता है चमन खिल उठती हैं फ़िज़ायें।
महबूब हो साथ तो समाँ संग संग गुनगुनाता है।
दुआ करो की कभी कोई आशिक न बिछड़े।
जुदाई का सिर्फ ख्याल ही कितना तड़पाता है।
कामयाब हो या न हो तू एक बार करके देख।
मोहब्बत का तजुर्बा भी बहुत कुछ सिखाता है।
पाकीज़ा है वो दिल जिसमें मोहब्बत होती है।
यूँ ही नहीं इश्क़ खुदा का साया कहलाता है।
स्वरचित और मौलिक
विवेक अग्रवाल
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