अपना ये रिश्ता
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अपना ये रिश्ता
न अपनों वाली आत्मीयता है और,
न अजनबियों वाली औपचारिकता।
असहज हो जाती हो मेरी मौजूदगी में,
आखिर कैसा है अपना ये रिश्ता। आखिर …
न कभी अनुराग से मनुहार किया और,
न ही कभी नम्रता से परिपूर्ण निवेदन।
चंद लफ़्ज़ों में कर लेती हो जरुरत की बात,
आखिर कहाँ सीखी ये व्यवहार कुशलता। आखिर …
न दिखी कभी स्नेहमयी सहज संवेदना और,
न ही कभी शिष्टाचार की कृत्रिम कृतज्ञता।
फिर भी रोज होती हैं अपनी बातें दो चार,
आखिर क्या है इस संवाद की विवशता। आखिर …
न कभी देखता हूँ बेबाक बिंदास ठहाके और,
न ही लिपस्टिक सी चिपकी नकली मुस्कान।
बस शून्य में कुछ ढूंढता एक भावहीन चेहरा,
आखिर क्यों लुप्त हो जाती है चपलता। आखिर …
न कभी मेरे कंधे पर सिर रख रोती हो, और
न ही गम छिपा कहती हो की सब ठीक है।
झिझकती हो जब आँसू पोंछने हाथ बढ़ाता हूँ,
आखिर कौन दुःख है जो दिल में कसकता। आखिर …
न कभी मुझसे मन की बात कहती हो, और
न ही कभी कुछ अनर्गल बोल छिपाती हो।
कैसे जानूँ मैं जो वाकई तेरे दिल में है,
आखिर इंसान हूँ मैं न की कोई फरिश्ता। आखिर …
बहुत देखा है अपनों को अजनबी बनते।
और अजनबियों से बनते नाता अपना।
पर ये जो है ना अपना और ना बेगाना।
आखिर कैसा है अपना ये रिश्ता। आखिर …
स्वरचित व मौलिक
~ विवेक (सर्व अधिकार सुरक्षित)
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