मोक्ष प्राप्ति को मानव जीवन का लक्ष्य मानने वाले ज्ञानमार्गी जिज्ञाशुओं के लिए धार्मिक पाठों और गोष्ठियों का संकलन प्रस्तुत पॉडकास्ट में करने की एक छोटी सी कोशिश की गई है ।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में श्री कृष्ण जी अर्जुन को भगवत्प्राप्ति कैसे की जा सकती है, बतला रहे हैं।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में श्री कृष्ण जी अर्जुन को भगवद्ज्ञान के बारे में बतला रहे हैं।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में श्री कृष्ण जी अर्जुन को ध्यानयोग के बारे में बतला रहे हैं ।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग के बारे में बतला रहे हैं ।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को दिव्य ज्ञान के बारे में बतला रहे हैं ।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग के बारे में बतला रहे हैं ।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सांख्य योग के बारे में बतला रहे हैं तथा युद्ध करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं ।
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श्रीमद् भगवद् गीता के इस अध्याय में धृतराष्ट्र और संजय के मध्य कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण पर वार्ता कर रहे हैं । और युद्धस्थल में अपने स्वजनों को देखकर अर्जुन करुणा से अभिभूत होकर युद्ध ना करने को कहता है ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक के सामने एक स्वस्वरूप स्थित पुरुष की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को एक तत्वज्ञानी की विवेक-प्रक्रिया के बारे में बतला रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को एक तत्त्वज्ञ पुरुष के लक्षणों को बतला रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को जीवनमुक्त महापुरुष के लक्षण बतला रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को स्वरूपस्थिति में जो सुख शांति मिलती है, उसका वर्णन कर रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को मोक्ष का मर्म और अद्वैत निरूपण बतला रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को एक आत्मज्ञानी अवधूत पुरुष की स्थिति से अवगत करा रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को स्वरूपस्थिति के आनंद का वर्णन कर रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को एक आत्मस्वरूप में स्थित पुरुष की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को शान्ति प्राप्ति के उपाय बतला रहे हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को तृष्णा के बारे में बता रहे हैं । वे कह रहे हैं कि तृष्णा ही बंधन है , इसे अब त्याग दो।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को बतला रहे हैं कि वासना ही सुख दुख आदि द्वंदों का कारण हैं ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को बतला रहे हैं कि चित्त की आसक्ति अनासक्ति ही बंधन और मोक्ष का कारण है ।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में राजा जनक श्री अष्टावक्र जी से ज्ञानी की जगत से असंबंधता का अनुभव साझा कर रहे हैं ।
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इस अध्याय में राजा जनक दृश्यमान जगत की असत्यता को सुनकर आत्मा और प्राकृतिक जगत की समानता का अनुभव श्री अष्टावक्र जी के सामने साझा कर रहे हैं।
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इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को इस दृश्यमान जगत की असत्यता के बारे में बताते हुए कहते है कि तुम इसको जान कर मुक्त हो जाओ । वो कहते हैं कि शुद्ध स्वरूप में इस जगत का कोई अस्तित्व नहीं है। यह सब भ्रम है जो यह सत्य दिखाई पड़ रहा है।
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अष्टावक्र गीता के चतुर्थ अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को एक आत्मज्ञानी पुरुष की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं। वे इसकी महानता इस प्रकार बताते हैं कि ऐसी स्थिति को देवतागण भी प्राप्त करना चाहते है।
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इस अध्याय में श्री अष्टावक्र जी राजा जनक को मनुष्य की अज्ञानता के बारे में बताते हैं। और उनको समझाते हैं कि यह कितने आश्चर्य की बात है कि सब कुछ जानने के बाद भी मनुष्य माया में फंसा रहता है।
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अष्टावक्र गीता के इस अध्याय में राजा जनक अपने मन में उठे संशयों को अष्टावक्र जी के सामने रखते हैं। इसमें वे दृश्यमान प्रपंच और आत्मसत्ता को लेकर आश्चर्य प्रकट करते हैं।
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अष्टावक्र गीता राजा जनक और अष्टावक्र जी के संवाद रूप में निबद्ध है । इस संवाद में चिंतन की गहराई की मनोहारी छाप दृष्टिगोचर होती है । आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले साधकों के लिए यह परमोपयोगी साबित होती है । कुल बीस प्रकरणों में यह विभक्त है ।
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